SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर महावीर तीर्थ एवं देवालय में कहीं भगवान नहीं हैं, श्रुतकेवली का वचन है । इस देह रूपी देवालय में ही भगवान हैं, यह निभ्रान्त रूप से जान लेना चाहिए । जौ लोग ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता मानते हैं वे ईश्वर के भिन्न-भिन्न लक्षण और उसका स्वभाव भी भिन्न-भिन्न बताते हैं । मूर्तिपूजक हिन्दू कहते हैं - ईश्वर मूर्ति पूजा से प्रसन्न होकर व्यक्ति को अपने में मिला लेता है । मुसलमान कहते हैं— अल्लाह मसजिद में पांचों वक्त नमाज़ पढ़ने से खुश हो जन्नत प्रदान करता है । और ईसाई कहते हैं गले में क्रॉस डाले रहकर गिरजाघर में प्रार्थना करने से व्यक्ति का कल्याण होता है । ऐसे व्यक्ति जैनधर्म को, सृष्टिकर्त्ता न मानने के कारण अज्ञानवश अनीश्वरवादी तथ नास्तिक भी कह देते हैं । किन्तु वे ऐसा करके भयंकर भूल करते हैं । जैन धर्म की मान्यता ७ जैन दर्शन के अनुसार जीव अनादि काल से है, अनादि काल से कर्म कर रहा है तथा स्वयं ही अपने कर्मों का फल भोग रहा है । कर्म ही जीव को बन्धन में डालते हैं और कर्म ही उसे संसार में परिभ्रमण कराते हैं । सूत्रकृतांग में कहा भी है- सयमेव कडेहगाहइ, नो तस्स मुच्चेज्जपुट्ठयं । आत्मा अपने स्वयं के कर्मों से ही बंधन में पड़ता है । कृत-कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है । अभिप्राय यही है कि जब तक जीव अपने कृत-कर्मों के बंधन में पड़ा रहता है, उसे नाना योनियों में संसार परिभ्रमण करना पड़ता है । किन्तु जब उसकी ज्ञान चेतना जागकर बलवती हो जाती है तो वह नवीन कर्मों के आगमन को रोक देती है और वह तपस्या आदि के द्वारा पूर्व संचित कर्मों का भी क्षय कर देता है । अर्थात् उसे निष्कर्म दशा मुक्ति प्राप्त हो जाती है । ऐसा मुक्त. जीव ही ईश्वर अथवा परमात्मा कहलाता है । पर ध्यान में रखने की बात है कि ऐसा मुक्त जीव जो परमात्मा पद को प्राप्त कर लेता है वह पुन: संसार सम्बन्धी किसी भी झमेले में नही पड़ता और न ही मोक्ष से लौटकर कभी इस संसार में अवतार ही लेता है । वह तो अनन्त काल तक अव्याबाध सुख और अप्रतिहत अनन्त ज्ञान दर्शन से सम्पन्न होकर लोक के अग्रभाग में स्थित रहता है । जैन धर्म ऐसे मुक्तात्मा या परमात्मा के विषय में स्पष्ट कहता है "अच्चेइ जरामरणस्स वट्टमग्गं - विक्खायरए, सव्वे सरा णियति, तक्का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy