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आनन्द-प्रवचन भाग-४
जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयण्णे न इत्थी न पुरिसे, अन्नहा, परिणे सणे उवमा न विज्जइ, अरुवी सत्ता, अपयस्स अरूवी णस्थि । से न स, न रूवे, न रसे, न गंधे, न फासे ।।
-आचारांग सूत्र प्र० अ० ५ उ०६ । अर्थात्-मुक्तात्मा जन्म मरण के मार्ग को उल्लंघन कर जाता है, मुक्ति में रमण करता है । उसका स्वरूप प्रतिपादन करने में समस्त शब्द हार मान जाते हैं, वहाँ तर्क का प्रवेश नहीं होता, बुद्धि अवगाहन नहीं करती, वह मुक्तात्मा प्रकाशमान है । वह न स्त्री रूप है, न पुरुषरूप है, न अन्यथा रूप है । वह समस्त पदार्थों का विशेष रूप से ज्ञाता है। उसकी कोई उपमा नहीं है। वह अरूपी सत्ता है। उस अनिर्वचनीय को किसी भी वचन के द्वारा नहीं कहा जा सकता । वह न शब्द है, न रूप है, न रस है, न गन्ध है और न स्पर्श है।
बंधुओ ! प्रसंग वश मैंने अपने जनदर्शन की मान्यता के अनुसार बद्ध आत्मा तथा मुक्तात्मा के विषय में बता दिया है। वैसे हम भगवान महावीर के विषय में बात कर रहे थे कि वे अपने सम्पूर्ण वैभव तथा परिजनों का त्याग करके भिक्ष बन गए और भिक्ष बनते ही निर्जन वन, गुफा या कन्दराओं में जाकर घोर तपस्या करने लगे। नाना प्रकार के भयंकर संकटों की परवाह किए बिना उन्होंने निरन्तर बारह वर्ष तक घोर तप किया और आत्मा की अनन्त शक्तियों को जगाकर केवलज्ञान, केवलदर्शन हासिल किया।
- महावीर का सर्वतोमुखी जीवन भगवान महावीर को ज्योंही कैवल्य की प्राप्ति हुई, वे अपने आपको एकान्त से हटाकर समाज में ले आए और चारों और फैली हुई विषमताओं को तथा सामाजिक एवं धार्मिक भ्रान्त रूढ़ियों को मिटाने में कटिबद्ध होकर जुट गये।
जातिवाद के विरुद्ध भगवान जातिवाद के कट्टर विरोधी थे । वे जहाँ भी गए सर्वप्रथम यही संदेश लेकर गए कि 'मनुष्य मात्र की केवल एक ही जाति है । जाति-पांति की दृष्टि से उनमें विभाग करना सर्वथा अनुचित है।'
जातिवाद के कट्टर विरोधी होने के कारण उन्होंने जातिमद में चूर रहने वाले लोगों को बहुत फटकारा और कहा-जो जाति का अभिमान करके औरों पर जुल्म ढाते हैं, वे इस लोक में तो अपनी उच्चता खो ही देते हैं, परलोक में जाकर भी नरक तिर्यंच आदि जघन्य गतियों में घोर यातनाएं
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