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________________ आनन्द-प्रवचन भाग-४ के यहाँ भगवान महावीर ने जन्म लिया । चैत्र शुक्ला त्रयोदशी का यह पावन दिवस भारत के इतिहास में सदा-सदा के लिये अमर हो गया। ___ महावीर राजकुमार थे । अत: बाल्यकाल से ही असीम ऐश्वर्य के बीच उनका लालन-पालन हुआ। युवावस्था आने पर अपूर्व सुन्दरी राजकन्या यशोदा से पाणिग्रहण भी हो गया । किन्तु उस सम्पूर्ण सुखमय गृहस्थ जीवन में भी उनका मन रमा नहीं । उन दिनों भारत का सामाजिक एवं धार्मिक पतन उन्हें अत्यन्त व्यथित किये था। जब तक वे गहस्थ के रूप में रहे, तब तक ही वे तपस्वियों के समान साधना में लगे रहे पर उससे भी जब उन्हें सन्तोष न हुआ तो केवल तीस वर्ष की उम्र में ही वे मगध का विशाल साम्राज्य ठुकरा कर एक अकिंचन भिक्षु के रूप में चल दिये। माता, पिता, पत्नी एवं अतुल वैभव का त्याग कर भगवान महावीर सीधे जन शून्य अरण्य में पहुँचे और बारह वर्ष तक कठोर तप-साधना करते रहे । समाज से दूर रहकर कभी निर्जन वन और कभी पर्वतों की गुफाओं में रहकर उन्होंने कठिन तपश्चर्या की और अपनी आत्मा की प्रसुप्त आध्यात्मिक शक्तियों को जगाया। इस बीच आपको भयंकर उपसर्गों का और विपत्तियों का सामना करना पड़ा। किन्तु वे मेरु पर्वत के समान निष्कंप और अडोल रहे। ____ सत्य और अहिंसामय उग्र-साधना के कारण उनके जीवन की सम्पूर्ण मलिनता मिट गई और आत्मा की पूर्ण विशुद्धता के फल-स्वरूप उसमें रही हुई अनन्त ज्ञान-ज्योति जगमगा उठी। अर्थात् उन्होंने केवल ज्ञान तथा केवल दर्शन प्राप्त किया तथा तीर्थंकर पद के अधिकारी बने । हमारा जैन-धर्म स्पष्ट कहता है कि कोई भी व्यक्ति जन्म से ही भगवान नहीं होता। उसे भगवान बनने के लिये उग्र साधना के पथ पर चलना पड़ता है तथा सदाचरण के कठोर नियमों का पालन करते हुए सम्पूर्ण आत्मिक-विकारों का नाश करना होता है। इन कसौटियों पर भली-भाँति कसा जाकर ही वह भगवत् पद का अधिकारी बनता है। इस पद पर उसे बाह्य जगत के प्राणी प्रतिष्ठित नहीं करते और न ही वह मंदिर, मसजिद, गिरजाघर या अन्य तीर्थ-स्थानों पर जाकर पूजा-पाठ अथवा नाना प्रकार की क्रियाओं के द्वारा ही भगवान बन सकता है। अपितु अपनी आत्मा में स्थित होकर उसकी सुप्त आत्म-शक्तियों को जगाकर ही वह भगवान बनता है। 'योगसार' में कहा भी है तिहि देवलि देवणवि इम सुई केवलि वुत्तु । देहा देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिमंतु ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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