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________________ १६ शास्त्रं सर्वत्रगं चक्षुः धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! मनुष्य जीवन में चातुर्य लाने के लिए कई साधन हैं, किन्तु उनमें से सर्व प्रथम साधन है - शास्त्रों का अध्ययन | शास्त्र किसे कहते हैं, इस विषय में कहा गया है 'शासयति जनान् इति शास्त्रम् ' अर्थात् - जो लोगों पर शासन करे अथवा उन्हें हुक्म दे वह शास्त्र है । शास्त्राज्ञा क्या है ? प्रश्न होता है कि शास्त्र किस प्रकार लोगों पर शासन करता है, और उन्हें क्या आज्ञा देता है ? वह कहता है धर्मं चर अधमं मा सत्यं वद् असत्यं मा Jain Education International कुरु । ब्रूहि । का आचरण मत करो । सत्य यानी - धर्म का आचरण करो, अधर्म बोलो, असत्य मत बोलो । इस प्रकार विधि और निषेध दोनों का ही शास्त्रों में विधान है । वह करने योग्य कार्य के लिए आज्ञा देता है और न करने योग्य का निषेध करता है । आत्म-कल्याण के लिये जो पथ्य है अर्थात् आवश्यक है उसे करने के लिए कहना और जो उसके लिए कुपथ्य है यानी त्याज्य है, उसे त्याग करने की आज्ञा देना शास्त्र का कार्य है । वह बताता है कि किन कारणों से आत्मा बँधती है और किन कारणों से बंधन मुक्त होती है । जिस प्रकार वैद्यक - शास्त्र शरीर में होने वाली बीमारी के समय रोग को बढ़ाने वाली वस्तुओं का त्याग एवं रोग को घटाने वाली वस्तुओं का उपभोग करने की आज्ञा देता है उसीप्रकार आध्यात्मिक शास्त्र आत्मा को हानि पहुँचाने वाले उपायों का त्याग और उसे लाभ पहुंचाने वाले उपायों का प्रयोग करने की प्रेरणा देता है । कहा भी है For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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