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________________ मुक्ति का द्वार-मानवजीवन १६९ अर्थात् - शब्द, रूप, रस, गंध एवं स्पर्श में जिसका चित्त न तो अनुरक्त होता है और न द्वेष करता है, उसी का इन्द्रिय-निग्रह प्रशस्त होता है। यद्यपि, आसक्ति का त्याग करना चाहिये यह कहना तो सरल है किन्तु इसको व्यवहृत करना बहुत कठिन है। विषयों का सेवन करते जाना और उनमें आसक्त न होना बड़ी कठिन साधना से ही संभव हो सकता है। क्योंकि मधुर और स्वादिष्ट भोजन करने पर भी उसके प्रति राग भाव न होना साधारण बात नहीं है अतः साधक के लिये उचित यही है कि वह राग-भाव पैदा करने वाले आहार का त्याग कर दे । अन्यथा कदम-कदम पर उसे कठिनाई उपस्थित हो सकती है राग और आसक्ति से बचने का प्रयत्न करने पर भी वह भावनाओं के प्रवाह में बह सकता है और बहुत काल तक की हुई उसकी साधना अल्पकाल में ही मिट्टी में मिल सकती है। कहने का अभिप्राय यही है कि जो यह मानव अपने चित्त की भूमि से विषय-लालसा को मूल से ही उखाड़ डालते हैं वे ही निराकुल होकर परमार्थ की साधना करते हैं और सच्चे सुख का आनन्द उठाते हैं। किन्तु जो व्यक्ति अपने मन पर संयम नहीं रख पाते तथा उसे अपनी इच्छानुसार चलने देते हैं वे अपने जीवन का अन्त तक भी कोई लाभ नहीं उठा पाते और उसे निरर्थक कर देते हैं। इसलिये प्रत्येक मुमुक्षु के लिये आवश्यक है कि सदा अपने जीवन का निरीक्षण करता रहे और विचार करता रहे कि मुझे क्या करना चाहिये और क्या नहीं, अन्य व्यक्ति मुझमें क्या क्या दोष देख रहे हैं और मैं उनके निवारण का प्रयत्न कर रहा हूँ या नहीं ? इस प्रकार सम्यक् रीति से अपने दोषों को देखने वाला व्यक्ति निश्चय ही भविष्य में ऐसा कोई कार्य नहीं करता, जिससे उसकी आत्मा का अहित होता हो वह कभी यह नहीं भूलता कि मनुष्य जन्म ही वह द्वार है जिसमें प्रवेश करके अपने लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् मुक्ति महल में पहुंचा जा सकता है। जिस मानव ने अपनी आत्मा को कर्म-मुक्त करने का पवित्र उद्देश्य बना लिया है वह कभी भी संसार के प्रपंचों में पड़कर, विषय वासनाओं के आधीन होकर और भोगोपभोगों में आसक्त होकर अपने जीवन को निष्फल नहीं बनाता । वह पूर्ण समभाव धारण करके संसार के समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझता हुआ कषायों और विकारों से अपनी आत्मा की रक्षा करता है तथा अपने अनमोल जीवन का लाभ उठाता है। ऐसा धर्म परायण व्यक्ति वीतराग की वाणी को न केवल सुनता है अपितु उसकी सहायता से अपने जीवन को निखारता है, आत्मा को विशुद्ध बनाता है और अन्त में परमात्मपद की प्राप्ति करके अक्षय एवं अव्याबाध सुख को हासिल कर लेता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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