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________________ शास्त्रं सर्वत्रगं चक्षुः यस्माद् रागद्वे षोद्धत चित्तान् समनुशास्ति संत्रायते च दुःखाच्छास्त्रमिति निरुच्यते अर्थ है–राग-द्वेष से उद्धत चित्त वालों को धर्म में एवं उन्हें दुःख से बचाता है, अतएव वह सत्पुरुषों के लाता है । सद्धर्मे । सद्भिः ॥ २०१ शास्त्र शब्द में दो धातुएँ मिली हुई हैं- 'शाशु और 'ङ' । इनका क्रमशः अर्थ है - अनुशासन करना और रक्षा करना । शास्त्र मनुष्य की आत्मा को मलिन होने से बचाने के लिये अनेक उपयोगी कार्यों को करने की आज्ञा देकर मनुष्य पर शासन करता है और उसे विषय विकारों से बचाकर अध: पतन की ओर ले जाने से बचाता है । शास्त्र वह चीज है जो मनुष्य का अंतर और बाह्य ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अवलोकन करने की क्षमता रखता है । कहा भी है - प्रशमरति १८७ अनुशासित करता है द्वारा शास्त्र कह शास्त्रं सर्वत्रगं चक्षुः । पदार्थों को देखते हैं, शास्त्र सभी स्थानों पर पहुँचाने वाली आँख है । जिस प्रकार हम और आप अपने नेत्रों से भौतिक उसी प्रकार शास्त्र रूपी नेत्र से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष आदि सभी को देखा जाता है यानी सभी का अध्ययन किया जाता है । और इसीलिये उसे सम्पूर्ण स्थानों पर पहुँचाने वाला नेत्र बताया गया है । Jain Education International आपके मन में विचार आएगा कि ऐसा कैसे संभव हो सकता है ? पहाड़ के पीछे, दीवाल के पीछे, परदे के पीछे क्या है, यह शास्त्र कैसे जान सकता है ? पर बंधुओ, अवधिज्ञान, मन:पर्यय एवं केवलज्ञान जिन्हें हो जाता है वे इस लोक की वस्तुओं को तो क्या, तीनों लोकों की वस्तुओं को देख लेते हैं । नरक और स्वर्ग में क्या हो रहा है इसे भी वे जान लेते हैं । आनन्द श्रावक का अवधिज्ञान हुआ था तो वे देख लेते थे कि स्वर्ग और नरक में क्या हो रहा है। ऐसा मूल पाठ शास्त्रों में है । तो यह कृपा शास्त्रों की ही है । शास्त्र - ज्ञान के अभाव में ऐसा विलक्षण ज्ञान प्राप्त होना कदापि संभव नहीं है । For Personal & Private Use Only यहाँ एक प्रश्न और उठ सकता है कि हमारे यहां जैसे व्याकरणशास्त्र, न्यायशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र तथा तो क्या इनमें से किसी का भी अध्ययन कर लेने से गंभीर ज्ञान की प्राप्ति हो जाती । और आत्मकल्याण हो सकता है । ? नहीं, सभी शास्त्र समान फल प्रदान नहीं कर सकते । व्याकरण शास्त्र शब्दों की शुद्धि करके भाषा को शास्त्र तो अनेक हैं वैद्यकशास्त्र आदि । www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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