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________________ १६४ आनन्द-प्रवचन भाग–४ सांसारिक साधनों का उपयोग करना न जानने के कारण मनुष्यों की तुलना में बहुत कम पाप करते हैं । पर मनुष्य संसार की प्रत्येक वस्तु को अपने कर्म - बंधन में सहायक बना लेता है तथा पापों का अंबार लगाकर अनन्तकाल के लिये उन में उलझ जाता है । कहने का अभिप्राय यही है कि पशु, पक्षी अथवा अन्य प्राणी बनने की बजाय मनुष्य इसलिए ही मनुष्य बना है कि वह इस जीवन का सर्वोत्तम लाभ उठाए और वह लाभ है आत्मा को कर्म- मुक्त करते हुए उसके असली स्वरूप में लाना । नियति ने इसीलिए उसे इस पृथ्वी पर मनुष्य बनाकार भेजा है । किसी कवि ने मानव को ताड़ना देते हुए कहा भी है भलाई खल्क के खातिर, तुझे, भेजा था मालिक ने, मगर अफसोस उलटा हो, चला तू जानकर गोया । अरे मतिमंद अज्ञानी ! जन्म प्रभु भक्ति विन खोया || क्या कहा है कवि ने ? यही कि - "अरे मूर्ख, और अज्ञानी मनुष्य ! तुझे तो भगवान् ने इस संसार में भलाई करने के लिए भेजा था । मालिक ने सोचा था कि तू इस सर्वोत्तम योनि को प्राप्त करके अपनी आत्मा का भी भला करेगा और अन्य प्राणियों का भी । यानी जिस प्रकार जल में पड़ा हुआ जहाज स्वयं तैर जाता है तथा अपने आश्रय में आए हुए प्राणियों को भी सागर पार करा देता है, उसी प्रकार तू भी स्वयं सन्मार्ग पर चलकर अपनी आत्मा का कल्याण करेगा तथा अपने संपर्क में आने वाले अन्य प्राणियों को भी उसी मार्ग पर चलाकर उनके उद्धार में भी सहायक बनेगा ।" किन्तु खेद की बात है कि तू सब कुछ जानने और समझने की क्षमता रखते हुए भी 'जानबूझ कर उलटा चला यानी कुमार्ग पर चलने लग गया । भलाई को छोड़कर तूने बुराई से गठजोड बाँध लिया और भक्ति को भूलकर आसक्ति में बंध गया । तू भूल गया कि आत्मा का कल्याण करने वाली एकमात्र भक्ति है - 'भक्तिः श्रयोऽनुबंधिनी ।' अर्थात् - भक्ति ही मनुष्य के लिये श्रेयस्कर और आत्मा को पावन करने करने वाली है । परमात्मा की भक्ति के अलावा और कोई भी ऐसी वस्तु संसार में नहीं है जो आत्मा के मैल को धो सके और उसे कर्म - भार से रहित बना सके । किन्तु उसको अपनाने में शर्त एक ही है कि उसके साथ-साथ सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति नहीं चल सकती । भक्ति के मार्ग पर चलने वाला आसक्ति के मार्ग पर नहीं चल सकता और आसक्ति के मार्ग पर चलने वाला भक्त नही बन सकता । भक्ति और आसक्ति का आंकड़ा छत्तीस का होता है । महात्मा कबीर ने भी कहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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