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मुक्ति का द्वार-मानव-जीवन
१६३ व्यक्ति संत मुनिराजों के समीप भी नहीं फटकना चाहते । वे सोचते हैं-"प्रथम तो संत पूछेगे, माला फेरते हो ? सामायिक करते हो ? चिन्तन, मनन, या भजन करते हो ? तो उत्तर में केवल लज्जित होना पड़ेगा । दूसरे अगर उन्होंने इन सबमें से किसी चीज का नियम दिलवा दिया तो उसका पालन करना भी एक मुसीबत हो जाएगी।
ऐसा विचार करता हुआ उनका मन आत्मा का कल्याण करने वाले धर्म मार्ग पर नहीं चलता और आत्मा को अधोगति की ओर ले जाने वाले पाप मार्ग पर चलता है। दूसरे शब्दों में धर्म मार्ग पर चलने में मन संकुचित व शंकित होता है किन्तु पाप मार्ग पर निश्शंक बढ़ता चला जाता है। धर्म का फल मिलेगा या नहीं, इस पर चलने से सुख की प्राप्ति होगी या नहीं इसमें तो उसे शंका या संदेह बना रहता है। किन्तु दुनियादारी के पाप मार्ग पर चलने से तुरन्त उसे सुख का अनुभव होता है यह प्रत्यक्ष देखा जाता है। __ वह दीर्घदृष्टि से गंभीरता पूर्वक यह नहीं सोच पाता है कि इन्द्रियों के विषयों की तृप्ति करने पर जिस सुख का अनुभव होता है, वह सुख सच्चा और स्थायी सुख नहीं है, केवल सुखाभास और क्षणभंगुर है। तथा इसके विपरीत धर्ममार्ग पर चलने से भविष्य में जो सुख मिलेगा वह शाश्वत तथा अव्याबाध होगा। मन की ऐसी ही विचित्र गति हैं । जिन धार्मिक और पवित्र विचारों को हृदय में स्थान देने से तथा उनके अनुसार शुभ एवं उत्तम क्रियाएँ करने से एक पैसे का भी अपव्यय नहीं होता उन्हें तो वह अपनाता नहीं । किन्तु नाटक, सिनेमा, एवं कदाचार को अपनाने में वह पैसे का अपव्यय, और शरीर की क्षति भी बर्दाश्त कर लेता है। अपना समस्त चैन, धन और नींद गवाकर भी वह पापों के बीज बोता है। ___इसका कारण यही है, वह दीर्घदृष्टि से अपने भविष्य का विचार नहीं करता, केवल वर्तमान के सुख को देखता है। उसका मन गम्भीरता पूर्वक यह नहीं सोचता कि यह जीवन तो क्षणिक है, इसके बीत जाने पर फिर आत्मा का क्या होगा? थोड़े से जीवन में भी पाप-कर्मों की भारी गठरी बाँध लेने पर उस बोझ को कब तक ढोना पड़ेगा और कितने जन्मों तक इस जीवन के थोड़े से सुख के बदले असह्य दुख भोगने पड़ेंगे ? ___ बंधुओ, यह मानव जन्म हमें इसलिये नहीं मिला है कि हम इसके द्वारा अपने भविष्य को बिगाड़ें और दुखों के सागर में जा पड़ें। अगर व्यक्ति ऐसा करता है तो उसका मनुष्य होने के बजाय तो पशु-पक्षी होना ज्यादा अच्छा होता । क्योंकि पशु-पक्षी बुद्धिहीन होने के कारण तथा पापों को बढ़ाने वाले
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