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आनन्द-प्रवचन भाग-४
में पीछे। किन्तु वैसा न होकर उलटा ही होता है। यानी जो कार्य करने लायक होते हैं, उन्हें तो मन करता नहीं और जो कार्य नहीं किये जाने चाहिये, उन्हें करने के लिये वाबला रहता है । इस विषय में शास्त्रकारों ने कहा है कि मन उस हरिण के समान है जो शंका करने लायक स्थानों में तो शंका नहीं करता किन्तु शंका न करने वाले स्थान पर आशंकित होता है । आपके हृदय में भी इस बात पर शंका होगी कि ऐसा क्यों ? उत्तर में सूयगडांग सूत्र की एक गाथा आपके सामने रखता हूं। गाथा इस प्रकार है
जविणो मिगा जहा संता, परिताणेण वज्जीया । असंकीयाइ संकन्ती, संकीयाई असंकिणो॥ परियाणियाणि संकेता, पासिताणी असंकिणो।
अन्नाणभय संविग्गा, संमिति तहिं तहिं । गाथा बड़े मर्म की है। इसमें भगवान महावीर फरमाते हैं-जविणो मृग अर्थात् वेगवानी हरिण को शिकारी अपने जाल में फंसाने का प्रयत्न करते हैं । वे चारों तरफ जाल डाल देते हैं तथा जहां रास्ता होता है वहां थोड़ा सा कपड़ा बिछा देते हैं।
तीव्र गति से भाग कर आने वाला हरिण जो कि बहुत दौड़-धूप करने से क्लांत हो चुकता है, वह समझ नहीं पाता कि किधर भाग कर प्राण बचाया जाय । वह जहाँ शंका करनी चाहिये वहाँ शंका नहीं करता और जहाँ शंका नहीं करनी चाहिये वहाँ शंका करता हुआ शिकारी के पास में जा फंसता है। नाना प्रयत्न करके भी वह उससे छुटकारा नहीं पा सकता।
यही हाल मनुष्य का भी है। वह सदा दुनियादारी के प्रपंचों में पड़ा रहता है । धर्म-कार्य जो कि उसकी आत्मा को पवित्र बनाते हैं उनसे तो वह दूर रहता है और पाप-कार्य, जो आत्मा को पतन की ओर ले जाते हैं उनमें प्रवृत्त रहता है । खेल-तमाशे, नाटक या सिनेमा आदि देखने के लिये जाने में तो उसे कोई संकोच नहीं होता। किन्तु संत महात्माओं की संगति का लाभ उठाने के लिये जाने में शंकित होता है कि लोग कहेंगे - “साधु बनने का इरादा है क्या ?" तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों की खुराक जुटाने में तो उसे लज्जा नहीं आती किन्तु आत्मा की खुराक जुटाने में वह लज्जित और संकुचित होता है। माया-मोह में फंसे रहने में उसे कोई झिझक नहीं होती पर सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध अथवा स्वाध्याय आदि करने में उसे बड़ी कठिनाई और झंझट महसूस होती है।
यद्यपि हमारे पूर्वजों ने सत्संगति करने की, शास्त्र श्रवण की तथा धर्मोपदेशों को अंगीकार करने की परिपाटी कायम की है । किन्तु आज के अधिकांश
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