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________________ मुक्तिका द्वार - मानव-जीवन मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावइ । तं सम्मं तु निगिण्हामि, धम्म सिक्खाइ कंथगं ॥ — उत्तराध्ययन सूत्र २३-५८ अर्थात् मन बड़ा साहसी और उद्दंड है, वह दुष्ट घोड़े के समान इधर-उधर दौड़ता है । मैं उसको धर्मरूप शिक्षा की लगाम से अच्छी तरह वश में किये हुए हूं । १६१ अतः इसे बिचारों से गाथा से स्पष्ट है कि भले ही मन बन्दर के समान चपल तथा दुष्ट घोड़े के समान उद्दंड और वेगवान होता है, फिर भी इसे चिंतन, मनन, स्वाध्याय एवं अन्य धर्म क्रियाओं में लगाकर वश में किया जा सकता है । इसका स्वभाव है कि यह क्षण भर के लिये भी खाली नहीं रह सकता । रोकना तो संभव नहीं है, और ऐसी चेष्टा करना भी निरर्थक है । किन्तु स्वाध्याय, ध्यान आदि प्रशस्तक्रियाओं में उलझाए रखने से इसे विषय - वासनाओं की ओर जाने का अवकाश नहीं मिलेगा और धीरे-धीरे जब यह इन्हीं में रमण करने का अभ्यासी बन जाएगा तो अन्य विषयों की ओर से विरक्त होकर यह आत्म-स्वभाव में लीन बना रहेगा यानी आत्मा में स्थिर हो सकेगा । मन की उलटी गति- - जब तक मन पर काबू नहीं किया जाता तब तक वह उलटा चलता है । आप यह सुनकर आश्चर्य करेंगे और विचार करेंगे कि मन के लिये उलटा और सीधा रास्ता कौन-कौनसा है ? इसका उत्तर ध्यान पूर्वक समझने की आवश्यकता है । जीवन का वह व्यवहार या क्रियाएँ जो आत्मा को कर्म बन्धनों से जकडती हैं वह उल्टा मार्ग है और जो प्रशस्त अथवा शुभ क्रियाएं आत्मा को कर्म - मुक्त करती हैं, वह सीधा मार्ग है । तो मन को जब तक सीधा मार्ग बताया न जाय और उस पर प्रयत्न पूर्वक चलाया न जाय, वह स्वयं तो उलटे मार्ग पर ही चलता है । आप और हम सभी जानते हैं कि इन्द्रियों के विषय में इतना आकर्षण है कि वे सहज ही बिना प्रयत्न के मन को अपनी ओर खींच लेते हैं । और मन स्वत: ही उनमें आनन्द का अनुभव करता हुआ उन्हीं में लीन रहता है । स्पष्ट है कि विकार और वासनाओं की पूर्ति जो कि कर्मों के बंधनों का कारण है, उलटा मार्ग कहलाता है तथा मन उस मार्ग पर बिना चलाए और बिना प्रयत्न किये ही चलता रहता है । धर्म -क्रियाओं के अथवा शुभ कामों के करने में तो मन सदा पीछे रहता है किन्तु पाप कार्यों में बिना कहे भी प्रवृत्त हो जाता है । होना तो यह चाहिये कि वह धर्म कार्यों में आगे रहे और पाप कार्यों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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