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मुक्ति का द्वार - मानवजीवन
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
आज हम अपने वेगवान मन की ओर दृष्टिपात करेंगे । आप और हम सभी अनुभव करते हैं कि मन की गति बड़ी विचित्र और तीव्र है । यह इतना चंचल है कि समय मात्र के लिये भी एक स्थान पर नहीं टिकता । कभी तो यह आकाश की ओर उड़ान भरता है और कभी पाताल में प्रवेश कर जाता है । इसकी दौड़ का कोई ठिकाना नहीं है । अपनी असाधारण चपलता के कारण यह प्रतिपल इधर-उधर भटकता रहता है । बड़े-बड़े साधकों के लिये भी इसे स्थिर करना बड़ा कठिन हो जाता है । किसी से भी इसे डर नहीं लगता । माला फेरते समय, स्वाध्याय करते समय, पूजा-पाठ करते समय अथवा चिंतनमनन के समय भी यह अपने शरण दाता जीव की परवाह न करता हुआ निर्भय होकर इतस्ततः विचरण करता रहता है । इसलिये मुमुक्षु प्राणी सर्वप्रथम इसे ही वश में करने का प्रयत्न करते हैं । कबीर का कथन है
कबीर मन मरकट भया, नेक न कहुं ठहराय । सतनाम बांधे बिना, जित भावे तित जाय ॥
अभिप्राय यही है कि साधक को अपनी साधना प्रारम्भ करने से पहले ही मन की गति का निरन्तर निरीक्षण करना चाहिये तथा इसे स्थिर रखने का अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि यह चपल है और इसका निग्रह करना कठिन है किन्तु फिर भी असंभव नहीं है । अगर यह कार्य असंभव होता तो हमारे शास्त्रों में इसके निग्रह करने के उपायों का वर्णन ही न किया जाता । प्राचीन काल के महा-मानवों ने इसका निग्रह किया है तथा शास्त्रोक्त उपायों का अवलंबन करने से आज भी इसे वश में किया जा सकता है ।
भगवान महावीर ने फरमाया है
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