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________________ मुक्ति का द्वार-मानव-जीवन १९५ जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय । नाता तोडे, हरि भज, भक्त कहावै सोय ।। यानी जब तक मनुष्य का जगत से लगाव रहता है तब तक वह ईश्वर की भक्ति कदापि नहीं कर सकता। जग से ममत्व त्याग देने पर ही वह सच्चा भक्त बन सकता है । और उसकी भक्ति में असाधारण शक्ति आ सकती है। भक्ति की शक्ति___ भक्ति की शक्ति के विषय में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम इतिहास को देखें तो सहज ही मालूम हो जाता है कि किस प्रकार भक्तों ने भगवान् को भी अपने वश में कर लिया था। ___ भक्त मीराबाई के विषय में आज सारा संसार सुन चुका है कि उसने अपनी भक्ति के बल पर निस्संकोच होकर जहर का प्याला पी लिया और भगवान् को स्वयं आकर उस जहर को अमृत बनाना पड़ा। चीर-हरण के समय द्रौपदी ने आपने आपको भगवान् के भरोसे छोड़ दिया और इसलिए भगवान् को दौड़कर उसकी लाज बचानी पड़ी। भक्त प्रल्हाद को स्वयं उसके पिता हिरण्यकश्यप के अत्याचार से अनेक बार बाल-बाल बचाना पड़ा। हमारे धर्म ग्रंथों में भी ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनमें भक्तों की शक्ति के विषय में बताया गया है । कामदेव श्रावक की भक्ति ने उन्हें अनेक संकटों से बचाया। चंदनबाला की भक्ति ने हथकड़ियों और बेड़ियों को तिनके के समान टूक-ट्रक कर दिया तथा सेठ सुदर्शन की भक्ति और शील की शक्ति ने सूली को भी सिंहासन बना दिया। वस्तुतः भक्ति में असीम शक्ति होती है। अगर वह अन्तर्मन से की जाती है । इसके विपरीत अगर व्यक्ति दुनियां को दिखाने के लिये और संसार के द्वारा ख्यातिप्राप्त करने के लिये दिखावटी भक्ति या भक्ति का ढोंग करता है तो वह भले ही कुछ काल के लिये लोगों की आँखों में धूल झोंक दे, किन्तु उससे कोई भी शुभ फल प्राप्त नहीं कर सकता। उलटे उसकी आत्मा पतित हो जाती है और भविष्य में उसे दुष्परिणाम भोगना पड़ता है। भक्ति का ढोंग करनेवाला व्यक्ति अपने मानव-जन्म का लाभ कभी नहीं उठा पाता और उसका यह जन्म प्राप्त करना न करना समान हो जाता है। . ऐसे व्यक्ति को तिरस्कृत करते हुए ही किसी पंजाबी कवि ने कहा है कि होया जे जन्म लिया ते, कदर जन्म दा पाया ना । जिनेश्वर दी भक्ति वाला, सच्चा रंग चढ़ाया ना ॥ काम, क्रोध, मद, लोभ लुटेरे, अन्दर घाट मचाई ए। भेद ए नां दा किसे न नाही, ते भी पता लगाया ना ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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