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________________ छः चंचल वस्तुएँ १८१ खाने, पीने और सोने की क्रियाएँ करता हुआ इस देह को पालेगा तथा राम के नाम को नहीं जानेगा तो अन्त में तेरे मुँह पर धूल ही पड़ेगी । कहने का अभिप्राय यही है कि जो अज्ञानी व्यक्ति संसार की अनित्यता को समझकर इस अल्पकालीन जीवन से लाभ नही उठाते तथा संसार के असली तत्व को न समझकर इसके मोह में फंसकर नष्ट हो जाते हैं वे पतिंगे के समान मूर्ख कहलाते हैं । यह संसार भी दीपक की लौ के समान माना जा सकता है और प्राणियों को पतिंगों के समान । मूर्ख पतिंगे दीपक के मोह में पड़कर उसीके आसपास मंडराते रहते हैं तथा उस पर गिरकर भस्म हो जाते हैं । वे यह नहीं जानते कि दीपक से प्रेम करने में मेरे हाथ तो कुछ लगेगा नहीं उलटे प्राणों का नाश होगा । उसी प्रकार संसार में आसक्त व्यक्ति यह नहीं समझ पाते कि संसार की इन आकर्षक विषय-वासनाओं में फँसने से तथा इनमें मोह रखने से मेरी आत्मा कर्म - बन्धनों में जकड़कर अनन्त काल तक महा भयानक दुःख भोगेगी । जो बुद्धिमान् और विचारवान् हैं वे इस सत्य को समझते हैं और केवल समझते ही नहीं उससे पूरा लाभ उठाते हैं । अर्थात् वे संसार को अनित्य और सर्वनाश का कारण मानकर समय रहते ही चेत जाते हैं तथा दान, शील, तप एवं भाव का आराधन करते हुए अपने जीवन को सार्थक कर लेते हैं । उर्दू के कवि ने भी लिखा है दुनिया से जौक रिश्तये उल्फत को जिस सर का है यह बाल उसी सर तोड़ दे । में जोड़ दे ॥ गई है - " हे प्राणी ! इस छोटे से इस पद्य में बड़ी गम्भीर बात कही दुनियां से तूने जो प्रेम का रिश्ता कायम कर लिया है उससे तुझे लाभ नही होगा वरन् हानि ही होगी । अर्थात् - इसके मोह में पड़कर तू अपने जन्म-मरण बढ़ा लेगा और परमात्मा से दूर होता चला जाएगा ।" इसलिये तेरे हक में अच्छा यही है कि इससे ताड़ दे और — 'यह बाल जिस सर का है उसी में मात्मा का अंश है उसी में ले जाकर मिला दे ।" पर यह होगा कैसे ? क्या इच्छा करते ही प्राणी सीधा चलकर परमात्मा के पास पहुंच जाएगा ? नहीं, उसके लिये बड़े पापड़ बेलने पड़ेंगे। पंजाबी - कवि नत्थासिंह ने परमात्मा के पास पहुंचने का उपाय बताया है बिना प्रभु दे तू होर नाल प्यार न करों मना याद रखीं । भगवान दे । न आन दे । Jain Education International ओ जाना चाहे भी तो अपने झूठे नाते को जोड़ दें'। यानी जिस पर - जे तूनेड़े पंजा बैरियां नं नेड़े For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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