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________________ १८२ आनन्द-प्रवचन भाग-४ काम क्रोध मोह लोभ ते हङ्कार न करी ओ मना याद रखीं। प्रभु के पास पहुंचने की पहली शर्त तो कवि ने यह रखी है कि प्रभु के अलावा अन्य किसी से भी मोह न रखा जाय । वे कहते हैं-"भाई ! अगर तुम्हें प्रभु को पाना है तो मेरी यह बात याद रखो कि तुम्हारा प्रेम भगवान के अलावा और किसी से भी नहीं होना चाहिये।" __अगर तुम्हें प्रभु के नजदीक जाना है तो अपने दुश्मनों को अपने पास मत आने दो । ये दुश्मन कौन हैं ? काम, क्रोध, मोह, लोभ एवं अहंकार आदि । कवि का कहना है कि अपनी आत्मा के इन दुश्मनों से बचो, इन्हें समीप मत फरकने दो, तभी तुम परमात्मा के पास पहुंच सकोगे। मेरी यह बात सदा याद रखो भूलो मत !" ___तो बन्धुओ, मूल बात यही है कि यह जीवन चंचल चपला के समान ही चपल है । कुछ कहा नहीं जा सकता किस क्षण आयुष्य की डोर टूट जाएगी। चाहे बचपन हो, जवानी या वृद्धावस्था । काल को किसी का लिहाज नहीं है और न किसी का भी पक्षपात है । उसके लिए बच्चे, युवा और बूढ़े सब समान हैं । वह जब चाहे जिसको भी सहज ही ले जा सकता है और ले जाता भी है। हम अपने नेत्रों के समक्ष ही किसी भी आयु के प्राणी को काल गाल में समाते हुए देखते हैं अतः इसका तनिक भी भरोसा न रखते हुए हमें जितना आयुष्य मिला हुआ है उसमें ही अपने आत्म-कल्याण का प्रयत्न कर लेना चाहिए। अगर हम अपने समय को बर्बाद करेंगे तो अन्त में वह हमें ही बर्बाद कर देगा । इसलिये समय रहते ही चेत जाना बुद्धिमानी है । ईश्वर ने हमें संसार के अन्य असंख्य प्राणियों की अपेक्षा बुद्धि इसीलिये प्रदान की है कि इसका हम उपयोग करें। अगर हम ईश्वर की इस महान सहायता से भी लाभ नहीं उठाते हैं तो बुद्धि का होना न होना समान ही है। (३) चित्त युवावस्था और आयुष्य के पश्चात् चित्त को चंचल बताया गया है । और यथार्थ में ही केवल इन दोनों से नहीं, अपितु संसार की समस्त चंचल वस्तुओं की अपेक्षा चित्त यानी मन चंचल है। वह पलभर भी एक सी स्थिति में नहीं रह पाता । चाहे आप सामायिक करें, प्रतिक्रमण करने बैठे, शास्त्र श्रवण करलें चाहें या कि अपने सांसारिक व्यापार और व्यवसाय संबंधी मसलों को सुलझाने की कोशिश कर रहे हों, पर आपका मन कभी एकाग्र होकर आपका सहायक नहीं बन सकता । जिसमें सांसारिक कार्यों में तो वह फिर भी कुछ काल तक एक जगह टिक भी सकता है किन्तु धर्म-कार्य में वह कभी नहीं टिकता। उसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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