SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० आनन्द-प्रवचन भाग-४ (२) आयुष्य- संसार की मुख्य-मुख्य चंचल वस्तुओं में से आयुष्य भी एक है। आयुष्य की चंचलता से कोई भी अजान नहीं है। सभी जानते हैं कि अनेक जीव जन्म लेते ही मर जाते हैं । और उससे पहले माता के गर्भ में ही कई स्वर्गस्थ हो जाते हैं । अगर वहाँ बच गए तो जन्म के समय या उसके पश्चात् भी कब काल आ जाय और प्राणी को इस पृथ्वी पर से उठालें, कुछ कहा नहीं जा सकता। जीवन एक स्वप्न के समान है। जिस प्रकार हम स्वप्न देखते हैं और उसमें न जाने कितनी क्रियाएँ करते हैं हास-विलास, परिहास आदि । किन्तु आंख खुलते ही उन सबका चिन्ह भी कहीं दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार यह जीवन है । अभी बैठे हैं, हँस रहे हैं, गीत सुन रहे हैं और भी जीवन के सुखों का उपभोग कर रहे हैं पर अगले क्षण ही लुढ़क कर निष्प्राण हो सकते हैं। और भोगा हुआ सब स्वप्न के समान ही विलीन हो सकता है । कबीर कहते हैं कि इस जीवन को अनित्य मानकर परमात्मा की भक्ति भी करते रहो ताकि अंत में पश्चाताप न करना पड़े। उनके सुन्दर पद्य इस प्रकार हैं तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय । को काह को है नहीं, सब देखा ठोक बजाय ।। कविरा रसरी पाँव में, कहं सोवे सुख चैन ? स्वास नकारा कूच का, बाजत है दिन रैन ।। इस चौसर चेता नहीं पशु ज्यों पाली देह । राम नाम जाना नहीं, अन्त परी मुख खेह ।। कहा है—यह शरीर एक सराय के समान है, मन यहाँ चौकीदार है तथा आत्मा इसमें मुसाफिर के समान आकर अल्पकाल के लिए ठहरा हुआ है । जिस प्रकार सराय में ठहरे हुए अन्य मुसाफिर किसी का साथ नहीं देते तथा अपने-अपने समय पर अपने गन्तव्य को चल देते हैं। इसी प्रकार इस शरीर रूपी सराय में भी जो आत्मा है उसका भी कोई अपना नहीं हैं, यह अच्छी तरह जांच-पड़ताल करके जान लिया है। कबीर जी कहते हैं-"अरे जीव ! तेरे पैरों में तो मृत्यु की रस्सी बँधी हुई ही है । जिसके द्वारा किसी भी पल यमराज तुझे खींच ले जाएगा। फिर भी आश्चर्य की बात है कि तू चैन की नींद सो रहा है । क्या तू जानता नहीं कि इस दुनियां में कुछ करने के लिए श्वास रूपी नगाड़ा दिन-रात बजता रहता है।" इस जीवन को कवि ने चौपड़ का खेल बताया है। कहा है कि इस खेल में भी तू नहीं जीतेगा यानी इस जन्म में भी नहीं चेतेगा और पशु के समान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy