________________
छः चंचल वस्तुएं
१७६ किन्तु जब बुढ़ापा आने को होता है तो उसकी सारी उछल-कूद, अकड़तकड़, जोश, चेहरे की चमक और सुर्सी सब न जाने कहाँ गायब होने लगती है। उस समय उसे ध्यान आता है कि मैंने अपने जीवन का अमूल्य भाग विषय-भोगों में और अशुभ कृत्यों में गंवा दिया उस समय पश्चाताप करते हुए वह कहता -
बाले लोला मुकुलितममी मन्थरा दृष्टिपाताः । कि क्षिप्यन्ते विरम विरम व्यर्थ एष श्रमस्ते ।। संप्रतन्ये वयमुपरतं बाल्यमास्था बनान्ते ।
क्षीणो मोहस्तृणमिव जगज्जालमालोकयामः ॥ ___ हे बाले ! अब त अपने अर्धनिर्मित नेत्रों से क्यों मेरी ओर कटाक्ष-बाण चलाती है ? अब इस दृष्टि को रोकले, क्योंकि इस परिश्रम से तुझे कोई लाभ नहीं होगा । अब हम पहले जैसे नहीं रहे । हमारी युवावस्था जा चुकी है और हमने मोह का त्याग कर वन में रहने का निश्चय कर लिया। अब हम विषय-सुख को तृण से भी निकम्मा समझते हैं।
__ वास्तव में ही वृद्धावस्था आने पर मनुष्य को होश आता है और वह अपनी युवावस्था में किये गए कुकृत्यों पर पश्चात्ताप करता है । पर फिर इतना समय और शक्ति उसके पास नहीं रह जाती कि वह अपने बिगड़े हुए कार्यों को सुधार सके और नये सिरे से जीवन-यापन कर सके। कहने का अभिप्राय यह है कि युवावस्था बड़े से बड़े बुद्धिमानों की बुद्धि भी इस प्रकार मलिन कर देती है, जिस प्रकार वर्षाकाल में निर्मल नदी का जल भी अत्यन्त मलिन हो जाता है।
मर्यादापुरुषोत्तम राम ने महामुनि वशिष्ठ जी से कहा था- "हे मुनिवर ! जिस महासागर में अनन्त और अगाध जलराशि है तथा लाखों करोड़ों बड़े-बड़े मगर, मच्छ और घड़ियाल हैं, उसका पार करना बड़ा कठिन है । पर मैं उसको पार करना उतना मुश्किल नहीं समझता जितना कि युवावस्था को पार करना कठिन समझता हूँ । युवावस्था विषयों की ओर ले जाने वाली, महाअनर्थकारी और लोक-परलोक को नष्ट करनेवाली है। जिस प्रकार आकाश में वन का होना आश्चर्य की बात है, उसी प्रकार युवावस्था में शाश्वत सुख के मूल वैराग्य, विवेक, सन्तोष और शांति का होना आश्चर्य है।" __इसलिये कहा गया है कि युवावस्था चंचल होने के साथ ही मनुष्य के जीवन को अपने दुर्गुणों से मलिन बनानेवाली है। अतः इसको संयमित रखते हुए धर्माराधन की ओर भी लक्ष्य रखा जाय । ताकि कुछ सूत्र व्यक्ति के पास ऐसे रहें जिससे मन भान न भूले और भटक न जाय ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org