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________________ १७८ आनन्द-प्रवचन भाग-४ रहती है कब, बहारे जवानी तमाम उम्र, मानिन्द बूये गुल, इधर आई उधर गई। यानी, युवावस्था की बहार तमाम उम्र एकसी कहाँ रह सकती है ? वह तो पुष्प की खुशबू के समान है जो एक तरफ से आती है और दूसरी तरफ चली जाती है। इसप्रकार इस विश्व में कोई भी वस्तु सदा एक सी नहीं रहती, वह प्रत्येक क्षण बदलती रहती है और अन्त में नष्ट हो जाती है। किन्तु कुछ चीजें तो और भी अधिक चंचल हैं। जो कि अत्यन्त शीघ्रता पूर्वक बदल जाती हैं। उनके लिये कहा जा सकता है. आज हैं और कल नहीं।। - संस्कृत के एक श्लोक में ऐसी ही छः वस्तुओं के लिये बताया गया है जो कि अन्य वस्तुओं की अपेक्षा शीघ्र परिवर्तित हो जाती हैं अर्थात् अन्य वस्तुओं की अपेक्षा अधिक चंचल हैं । श्लोक में बताया है : यौवनं जीवितं चित्त, छाया लक्ष्मी च स्वामिता। चंचलानि षडेतानि, ज्ञात्वा धर्मरतो भवेद् ॥ (१) युवावस्था श्लोक में छः प्रकार की चंचल वस्तुओं में पहला नंबर यौवन का आया है यौवनावस्था, जो कि अपने साथ असीम बल, सौन्दर्य, उत्साह, साहस एवं गर्व लेकर आती है बहुत थोड़े समय में ही वृद्धावस्था में बदल जाती है। जिस प्रकार बरसाती नदी में बाढ़ आती है पर शीघ्र ही पुनः समाप्त हो जाती है उसी प्रकार युवावस्था भी बड़े जोश और शोरगुल के साथ आती है किन्तु शीघ्र ही चली भी जाती है। ____ जब यह शरीर में विद्यमान रहती है, तब तक मनुष्य मारे घमंड के मस्तक ऊँचा रखकर, गर्दन अकड़ाकर और आँखे लाल करके चलता है। न किसी की परवाह करता है और न किसी का लिहाज । वह भूल जाता है कि यौवन आता हुआ दिखाई देता है पर जाता हुआ नहीं। पवन की अपेक्षा भी अधिक तेज चाल से दिन-रात बीतते हैं और जवानी समाप्त हो जाती है । जब तक वह रहती है, व्यक्ति किसी से सीधे मुह बात नहीं करता तथा दया, करुणा एवं सेवा आदि के गुण उससे दूर भागते हैं। उसके हृदय में केवल अहं, निर्दयता एवं विलास का निवास रहता है। जवानी के नशे में चूर रहनेवाले व्यक्ति को शील और सदाचार का नाम ही नहीं सुहाता । उसका ध्येय केवल यही रहता है कि किस प्रकार इन्द्रियों को अधिक से अधिक सुख दिया जाय तथा भोगों का उपभोग किया जाय । बड़ों की सीख और गुरु की शिक्षा भी उसे रुचिकर नहीं लगती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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