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________________ छ: चंचल वस्तुएँ धर्मप्रेमीबंधुओ, माताओ एवं बहनो ! ___ इस संसार में हमें जितनी भी वस्तुएँ दिखाई देती हैं, सब नाशवान हैं। प्रत्येक वस्तु धीरे-धीरे परिवर्तित होती जाती है, अन्त में नष्ट होती है। काल का स्वभाव है कि वह नई चीज को पुरानी और पुरानी को नष्ट कर देता है। किसी भी वस्तु को वह एक सा नहीं रहने देता। भले ही हमारे नेत्रों से यह परिवर्तन शीघ्र दिखाई नहीं देता किन्तु वस्तु में प्रतिपल परिवर्तन आता रहता है और उसे कोई रोक नहीं सकता। गीता में कहा गया है __नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । असत् का अस्तित्व नहीं है और सत् का नाश नहीं है। अर्थ स्पष्ट है कि जो शाश्वत है वह कभी नाश को प्राप्त नहीं हो सकता और जो असत् है वह कोटि प्रयत्न करने पर भी शाश्वत नहीं हो सकता। हमारा शरीर अशाश्वत है और इसीलिये इसमें नित्य परिवर्तन आता रहता है। बालक के जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक हम इस परिवर्तन को होते हुए देखते हैं । शैशवावस्था में शिशु कितना भोला, नाजुक और शक्तिहीन दिखाई देता है, युवावस्था में वही शिशु सब तरह से शक्तिशाली बन जाता है। क्योंकि उसकी मानसिक एवं शारीरिक दोनों ही शक्तियाँ बढ़ जाती हैं। जिस प्रकार इसका शरीर पष्ट होता है, उसी प्रकार साहस और आत्म-विश्वास भी बढ़ जाता है । दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि जवानी, जोश, बल, साहस, आत्म-विश्वास एवं गौरव का ही दूसरा नाम है। किन्तु वह भी कभी स्थायी नहीं रह सकती। किसी ने सुन्दर शब्दों में इसकी अनित्यता बताते हुए कहा है १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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