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________________ १७६ आनन्द-प्रवचन भाग-४ ''बेटा ! अगर मैं खाते समय हलुए का और गोबर का अन्तर ही समझता रहें तो फिर भगवान को किस प्रकार स्मरण रखू ? काम तो एक बार में एक ही होता है । या तो भगवान को याद करना या अन्य सांसारिक व्यापारों को निपटाना।" वस्तुतः भगवान के प्रति ऐसी तन्मयता होने पर ही उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। कोई व्यक्ति यह चाहे कि मैं संसार के सुखों का उपभोग भी करता रहूँ और आत्मा का कल्याण भी कर लूं, तो यह कदापि सम्भव नहीं है। भोग और योग परस्पर विरोधी हैं। प्राणी इनमें से एक को ही अपना सकता है । अगर वह संसार से मुक्त होना चाहता है तो उसे संसार से विरत होना पड़ेगा । और अगर वह संसार के सुखों को भोगना चाहता है तो मुक्ति उसके पास भी नहीं फटक सकती । मुक्ति का अधिकारी वही बन सकता है जो संसार से ऊब कर उनसे छुटकारा पाने के लिये छटपटाता हो, जिस प्रकार उर्दू के कवि दाग ने घबराकर कहा है : भरे हुए हैं हजारों अरमां, फिर उस पै है हसरतों की हसरत । कहां निकल जाऊं या इलाही, ___ मैं दिल की बसत से तंग होकर ॥ कवि का कथन है—मेरे मन में हजारों वासनाएं तो विद्यमान हैं और वासनाओं के पूरे न होने का दुख और भी अधिक है । हे ईश्वर ! मैं तो अपने हृदय की उलझनों से परेशान हो गया हूं। लगता है कि दिल के इस झमेले से पीछा छुड़ाकर कहीं दूर भाग जाऊँ । बन्धुओं, साधक के हृदय में जब ऐसी ही छटपटाहट संसार में रहकर होने लगती है, तभी वह इससे मुक्त होने का प्रयत्न कर सकता है । अन्यथा नहीं। मैं पूछता हूँ कि क्या आपका दिल भी इस दुनियादारी से तंग नहीं हो गया है तो फिर इससे मुक्ति पाने के प्रयत्न में ढील क्यों ? आपको तो इसी क्षण में 'शुभस्य शीघ्रम्' को चरितार्थ करना चाहिये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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