SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कहां निकल जाऊँ या इलाही ! १७५ उसके लिये समान होते हैं । न वह किसी से कुछ लेता है और न किसी को कुछ देता है । अपने बन्धु-बान्धवों में रहकर भी उनमें ममत्व नहीं रखता और उनके न होने पर तनिक भी दुखी नहीं होता। वह न किसी को नीचा समझता है और न किसी को ऊँचा । चाहे जैसी स्थिति में रहे, मस्त रहता है। सभी प्राणियों को वह समान दृष्टि से देखता है क्योंकि सभी की आत्मा को एक ही परमात्मा का अंश मानता है। सच्चा ज्ञानी शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य तथा स्वर्ग-नरक को कोई चीज नहीं समझता तथा बन्धन और मोक्ष को भी मन का संकल्प या भ्रम मानता है। ब्रह्मज्ञान में वह ऐसा डुबा रहता है कि दीन-दुनिया की उसे कोई खबर नहीं रहती। एक बार में एक ही काम एक महात्मा किसी वन में एक छोटी सी कुटिया बनाकर रहते थे। रात-दिन वे भगवान की भक्ति करते और मस्त पड़े रहते थे । न उन्हें खाने की सुधि रहती न पीने की । जब कभी ध्यान आ जाता तो पास के एक गाँव की ओर चल देते तथा जो कुछ भी मिल जाता उसे खा लेते । उनकी लगन एक परमात्मा से ही थी, बाकी और कोई कार्य उनके लिये महत्त्व नहीं रखता था। __एक बार कई दिन बाद वे गाँव में आये और किसी गहस्थ के द्वार पर पहुँचे । गृहस्थ ने उन्हें बड़े आदरपूर्वक आसन पर बिठाया और खाने के लिए थाली में हलुआ परोस दिया । ___ ठीक उसी समय गाँव का कोई व्यक्ति अत्यन्त जरूरी काम से उस गृहस्थ को बुलाने आ गया अतः अपने पुत्र को महात्माजी का ध्यान रखने को कहकर वह घर से बाहर चला गया। __ महात्माजी अनमने भाव से हलुआ खा रहे थे । गृहस्थ का पुत्र पास ही बैठा था, उसके मन में अचानक कुछ विचार आया और महात्माजी की थाली में उसने बाहर से लाकर गोबर परोस दिया । पर महात्माजी का ध्यान उधर गया ही नही और हलुआ खाते-खाते वे गोबर भी उसी प्रकार खाने लगे जिस प्रकार हलुआ खा रहे थे। ___ यह देखकर वह लड़का बड़ा ही चकित हुआ और महात्माजी के चरणों पर गिर पड़ा तथा उनसे अपने अपराध की क्षमा माँगने लगा। महात्माजी तब कुछ चोंके और बोले-"क्या हुआ भाई ?" "भगवन् ! मैंने आपको हलुए के स्थान पर गोबर परोस दिया था पर आप उसी भाव के साथ वह खाते रहे ऐसा कैसे हो सका ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy