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कहां निकल जाऊँ या इलाही !
१७१ अपमानित और तिरस्कृत करने में नहीं चूकता । बुजुर्गों की कोई कद्र उसके हृदय में नहीं रह जाती।
किन्तु इसका परिणाम आखिर क्या होता है ? यह जीवन तो थोड़े समय में समाप्त हो जाता है पर अहं के कारण जो क्रोध और कषाय की भावनाएँ उसकी आत्मा पर कर्मों की तहें चढ़ा देती हैं वे उसके साथ ही चलती हैं। कैसी अजीब बात है कि जिस धन के लिए वह जिंदगी भर खटता रहता है और उसके नशे में चूर होकर अन्याय, अनीति, बेईमानी, धोखा सभी कुछ करता है, वह तो यहीं रह जाता है और जिनकी वह चाह भी नहीं करता तथा जिन्हें पाने का प्रयत्न नहीं करता वे कर्म स्वयं ही उससे जुड़कर उसके साथ जाते हैं । यह सब राग, द्वेष और अहंकार के कारण ही होता है ।
किंतु वीतराग में इनका लेश भी नहीं होता । भगवान् महावीर के दर्शन करने एक बार महाराज श्रोणिक अपनी सेना और लाव-लश्कर के साथ आया था। साथ ही एक ओर से एक मेंढ़क भी दर्शन करने के लिये आया। पर भगवान् की प्रेम भावना श्रेणिक राजा और उस लघु शरीरधारी मेंढ़क पर समान रही । जबकि एक मनुष्य था और एक छोटा-सा जानवर। - आज तो व्यक्ति मानव-मानव में ही जमीन आसमान का अन्तर कर देता है। आपके यहाँ अगर कोई रईस या ओहदेधारी स्थानक में प्रवचन सुनने आता है तो आप उसे सबसे आगे लाकर बैठाते हैं, किन्तु कोई गरीब आए तो? उसकी ओर दृष्टि भी डालने की इच्छा नहीं करते जबकि सर्वज्ञ और सर्वदर्शी वीतराग के मुकाबले में हमारे पास है ही क्या ? उनके ज्ञान के समक्ष हमारा ज्ञान क्या है, सागर के जल में एक बूद के जितना भी नहीं । जिन चक्रवर्तियों ने अपनी अथाह दौलत छोड़कर अपने आपको संयम मार्ग पर डाल लिया था, उन सगर चक्रवर्ती भरत चक्रवर्ती आदि की दौलत के मुकाबले में आपकी दौलत भी कितनी है ? कुछ भी नहीं, इसी प्रकार शारीरिक बल और सौन्दर्य की भी बात है। कुछ समय पहले ही मैंने बताया था कि चक्रवर्ती की जूठन अर्थात् खारचन-खुरचन खाने वाली दासी भी अपनी चुटकी में मसल कर वज्र-हीरे का चूरा कर देती थी।
कहने का अभिप्राय यही है कि उन महामानवों का मुकाबला हम किसी दृष्टि से रंच-मात्र भी नहीं कर सकते फिर अहं किस बात का ? हम किस बात का गर्व करते हुए राग-द्वेष और मोह के वशीभूत होकर अपने छोटे से जीवन को बर्बाद करते हैं ?
गुजराती भाषा के एक कवि ने अपने भजन में भी कहा है
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