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आनन्द-प्रवचन भाग-४
आवो रे रूडो, मनुष्य जन्म शोद खुवे ! संसारी जन कहे अमे छोए सुखिया, धन पुत्र ने जुवे । आवो रे... हलावे ने प्रीते परणावे, मूआ पच्छी धसको । आवो रे" मूलचन्द कहे भोली दुनिया,
हैते हलावे
देखी परखी ने पड़े कुवे । आवो रे
क्या कहा गया है ? यही कि ऐसा उच्च मनुष्य जन्म पाकर उसे तू कहाँ खोये दे रहा है ? जप, तप भक्ति, साधना कुछ भी तो नहीं करता। क्या इन सबके न करने पर तू भविष्य में सुखी हो सकेगा ?
पर संसारी पुरुष अपने आपको तो धोखा देते ही हैं, सन्त महापुरुषों को भी धोखा देने का प्रयत्न करते हुए कहते हैं- "हम कहाँ अपने जीवन को व्यर्थ गँवा रहे हैं ? बहुत सुख और आराम से रहते घर में बहुत धन है, परिवार है, पुत्र है और चाहिए भी क्या ?
अरे भाई ! मैं मानता हूँ कि आपके यहाँ सात पीढ़ियों तक चल सकने वाली दौलत है, स्वज़न परिजन पुत्र-पुत्रियाँ सभी हैं । और तुम इन सबको लेकर जिसे सुख मानते हो वह तुम्हें मिला हुआ है । किन्तु यह सब कितने दिन का है ? जीवन के पचास-साठ या सत्तर साल ही तो तुम इनसे सुख का अनुभव कर सकते हो । पर उसके बाद ? फिर भी तो तुम्हारी आत्मा विद्यमान रहेगी और कहाँ वह रहेगी । क्या तुम इन सब सुखके साधनों को अपने साथ रख सकोगे ? कहीं नरक, निगोद और तिर्यंच योनि में पहुँच गए तो फिर क्या होगा ? इस सम्पत्ति और परिवार का सुख कैसे भोगोगे ?
स्पष्ट है कि तब तुम्हारे साथ यह कुछ नहीं रहेगा केवल रहेंगे कर्म, जैसे भी तुम यहाँ उपार्जन कर लोगे । पर ऐश्वर्य के मद में भूखे रहकर तुम शुभ कर्मों का उपार्जन भी तो नहीं करते हो, फिर स्वयं ही सोच लो कि कैसे कर्मों को साथ लेकर यहाँ से जाओगे ।
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अभी तो तुम पुत्र जन्म की खुशी से पागल हो जाते हो । बड़े लाड़-प्यार से उसका पालन-पोषण करते हो और फिर उसका विवाह करके समझते हो कि हमें सुख की चरम सीमा प्राप्त हो गई है । किन्तु कुछ वर्ष बाद ही जब तुम्हारी आयु पूरी हो जाएगी, तुम्हारे ये पुत्र ही एक पल भी तुम्हें अपने घर में न रखकर निकाल बाहर करेंगे । और तुम्हारे सारे सुख आँखें बन्द करते ही तुम्हारे लिये विलीन हो जायेंगे ।
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