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आनन्द-प्रवचन भाग – ४
राजानोऽपि महाबला मृतिमगुः,
का पामराणां कथा ||
कहा गया है - जो अखिल भूमण्डल के अधिकारी चक्रवर्ती सम्राट् थे और जिनके विशालतम राज्य, अपार वैभव और बल की तुलना किसी से नहीं हो सकती थी ऐसे भरत, सगर, तथा मघवा आदि पृथ्वी के शासक भी नष्ट हो गये अर्थात् उन्हें काल का भोग बनना पड़ा ।
बंधुओ, चक्रवर्ती सम्राट् के वैभव की जिस प्रकार गणना नहीं हो सकती, उसी प्रकार उनके शारीरिक बल की भी किसी से तुलना नहीं की जा सकती थी । हमारे शास्त्रों में वर्णन है कि असली हीरा जो ऐरण और घन के बीच में आने पर भी नहीं फूटता उसे चक्रवर्ती सम्राट की दासी अपनी चुटकी से ही मसलकर चूर-चूरकर देती थी । तो मात्र जूठन खानेवाली दासी में जब इतनी शक्ति होती थी तो स्वयं चक्रवर्ती राजा में कितनी शक्ति होती होगी ? किन्तु ऐसे सम्राटों को भी काल का संकेत पाते ही इस पृथ्वी पर से प्रयाण करना पड़ा । इससे स्पष्ट है कि जब ऐसे-ऐसे बलशाली व्यक्तियों को जाना पड़ा तो क्या हम सदा यहीं रह लेंगे ? नहीं, जिस नदी में हाथी भी डूब सकता है उसके लिये खरगोश कहे कि मैं तो आराम से उस पार चला जाऊँगा तो यह संभव नहीं है । जहाँ हाथी का भी वश नहीं चलता वहाँ खरगोश की . बिसात हो क्या है ।
यहां आप कहेंगे किं भरत चक्रवर्ती तो भगवान आदिनाथ के पुत्र थे और यह बात बहुत पुरानी हो गई है तो अब श्लोक में दी गई उससे बहुत बाद की बात भी आपके सामने रखता हूं । वह राम और रावण के समय की है । राम और रावण चौबीस तीर्थंकरों में से बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी के समय में हुए 1
तो रावण भी तीन खण्ड का राजा था । और उसके पास विद्या, धन, बल तथा परिवार सभी की प्रचुरता थी । सूर्य और चन्द्र को भी अपनी इच्छानुसार चलानेवाला सोने की लंका का स्वामी रावण अपनी अनीति के कारण इस संसार से चला गया । खैर रावण को अपनी अनीति का फल भुगतना पड़ा किन्तु राम को तो यहीं रहना था । पर नहीं, रावण के मद का मर्दन करनेवाले मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भी यहां से जाना पड़ा । वे भी सदा के लिये यहां विद्यमान नहीं रह सके ।
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अब आते हैं कौरव और पांडव । ये बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान के समय हुए थे । इन दोनों में से कौरव अत्याचारी थे अतः वे पांडवों
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