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आज काल कि पांच दिन जंगल होगा वास
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इस उदाहरण को देने का अभिप्राय यही है कि दामाजी और धन देने वाले उस श्रेष्ठ की उदारता के समान ही जब व्यक्ति में दया और उदारता की भावना पनपती है तब वह ईश्वर का सच्चा भक्त कहलाता है । भगवान् अपनी पूजा से कभी प्रसन्न नहीं होते, वे निर्धनों पर दया करने से तथा दुखियों की सेवा करने से प्रसन्न होते हैं । यही उनकी सच्ची पूजा है कि मानव संसार के समस्त प्राणियों के प्रति सद्भावना और क्षमा के भाव रखे । तो श्लोक में बताए गये अहिंसा, संयम, दया, क्षमा आदि जो आठ गुण हैं वे वस्तुतः आत्मा को शुद्ध बनाकर ऊँचा उठानेवाले हैं । हमारा जैनधर्म भी आत्म शुद्धि और पाप मुक्ति के लिये इन्हें पूर्णतया अपनाने का आदेश देता है । जो व्यक्ति इनका महत्त्व नहीं समझता वह लोभ-लालच से नहीं बच सकता और लोभ तो समस्त पापों का मूल है ही । इसलिये कबीर ने कहा है
कामी, क्रोधी, लालची इन तें भक्ति न होय । भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥
कामी, क्रोधी और लालची व्यक्तियों का हृदय कभी भी निष्पाप नहीं रह
नहीं कर सकते । भक्ति वही
सकता अतः वे ईश्वर की भक्ति स्वप्न में भी शूरवीर कर सकता है जो इन्द्रियों पर पूर्णतया विजय प्राप्त कर सके तथा अपने मन को अंकुश में रख सके । साथ ही जो अपनी जाति, कुल और वर्ण का अभिमान त्याग कर अपने आप को केवल मानव समझे और अन्य समस्त प्राणियों को भी आत्मवत् समझे वही प्रभु का भक्त कहला सकता है और साधना के मार्ग पर बढ़ सकता है ।
पर ऐसा कौन कर सकता है ? केवल वही, जो संसार की अनित्यता पर विश्वास रखता है । ऐसा न माननेवाला व्यक्ति कभी मोह-माया के पाश से मुक्त नहीं हो सकता ।
भारतभूषण शतावधानी श्री रत्नचन्द्र जी महाराज ने अपनी 'भावनाशतक' पुस्तक में एक श्लोक लिखा है:
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प्राज्यं राज्यसुखं विभूतिरमिता, येषामतुल्यम् बलम् ।
ते नष्टा भरतादयो नृपतयो,
भूमण्डलाखण्डलाः ॥
रामो रावण मर्दनोऽपि विगतः ।
क्वते गताः पाण्डवाः ।
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