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आनन्द-प्रवचन भाग--४
___एक बार एक अजनबी व्यक्ति संयोगवश उसके यहां आ पहुंचा और दामाजी ने आग्रहपूर्वक उसे भोजन करने के लिये आसन पर बैठा दिया। पर ज्यों ही उसने अपने मेहमान के सामने भोजन की थाली रखी, उसकी
आंखों से आंसू बहने लगे। ... दामाजी ने यह देखकर आश्चर्यपूर्वक पूछा - "भाई ! क्या बात है ? क्या तुम्हें किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव हो रहा है ?"
अतिथि ने उत्तर दिया-"नहीं, मुझे कष्ट तो कुछ भी नहीं है । पर मेरे गांव में अकाल पड़ गया है अतः सोच रहा हूं कि मेरे बाल-बच्चे वहां भूखे होंगे । इसीलिये मुझसे खाया नहीं जा रहा है।"
__ अतिथि की बात से दामाजी की आंखों में भी अश्रु छलक आए, पर उसने आगन्तुक को समझा-बुझाकर खाना खिलाया और जाते समय उसे काफी अनाज साथ में बांध दिया ताकि वह अपने परिवार को भी खिला सके।
वह व्यक्ति जब अपने गांव में पहुंचा तो उसने दामाजी की उदारता की मुक्त कंठ से सराहना की। परिणाम यह हुआ कि उस गांव से अनेक व्यक्ति दामाजी के यहां आने लगे। पर वह उन सब के लिये अनाज की पूर्ति कैसे करता ? यद्यपि उसके यहां कई कोठे अनाज के भरे हुए थे पर वे सब राज्य के थे । अतः वह बड़ी चिन्ता में पड़ गया। किन्तु आखिर उसने निश्चय किया कि अन्न के अधिकारी तो भूखे व्यक्ति ही होते हैं अतः उन्हें अन्न देना चाहिये भले ही राजा मुझे इसके लिये दंड देवें । मैं दण्ड सहर्ष भोग लूगा। -
यह विचार कर उसने राजकीय कोठे खोल दिये और अन्न बाँटना प्रारम्भ कर दिया । अकाल-पीड़ित लोगों की कतारें लग गई और वे बेचारे अनाज ले-लेकर दामाजी को आशीर्वाद देते हुए चले गए। सभी को जीवित रहने योग्य अन्न प्राप्त हो गया। .. इधर जब राजा को यह बात मालूम हुई तो उसने राज्य के कर्मचारियों के द्वारा दामाजी को पकड़वा मंगाया। दामाजी भी प्रसन्न मन से सिपाहियों के साथ चल दिये । यह बात सारे गाँव में फैल गई और एक सहृदय श्रीमंत को भी इसका पता लगा । वह उसी समय राजा के पास गया और बोला"महाराज ! दामाजी ने जितना भी राज्य का अनाज दुष्काल-पीड़ित लोगों में बाँट दिया है, उस सबका पैसा आप मुझसे लेकर खजाने में जमा कर लीजिये और दामाजी को मुक्त कर दीजिये।"
- राजा को बात जंच गई और उसने सेठ से धन लेकर दामाजी को छोड़ दिया। यही दामाजी 'भक्त दामाजी पंथ' के नाम से आगे जाकर प्रसिद्ध हुए।
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