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अपना आत्म-कल्याण करना है उसकी ये सभी क्रियाएँ अनेक विशेषताएँ लिये हुए होती हैं । और ये सब विशेषताएँ केवल संतों की संगति से और उनके उपदेश-श्रवण से ही जीवन में उतर सकती हैं । सत्संगति से ही मनुष्य हेय, ज्ञेय और उपादेय अर्थात् छोड़ने योग्य क्या है ? जानने योग्य क्या है और ग्रहण करने योग्य क्या है ? इसे समझ सकता है ।
महात्मा कबीर ने कहा है
आनन्द-प्रवचन भाग-४.
'संतन के संग लाग रे, तेरी अच्छी बनेगी ।'
स्पष्ट है कि मनुष्य जैसे व्यक्तियों की संगति करेगा वैसा ही बन जाएगा । चोर - डाकू की संगति करेगा तो निश्चय ही चोरी करना सीखेगा और अगर साधु-पुरुषों के सहवास में रहेगा तो उसका जीवन त्याग, तपस्या एवं संयम की और बढ़ेगा साधु को न आपके धन की परवाह है और न विषय-भोगों की चाह । उनका लक्ष्य सांसारिक पदार्थों से ममत्व हटाते हुए केवल आत्मा को कर्म-बंधनों से मुक्त करना होता है । इसीलिये वे व्रत और नियम ग्रहण करते हैं, तप करते हैं तथा अधिक से अधिक एकान्त में रहकर परमार्थ चिंतन करते हैं ।
भजन में भंग न पड़ जाए।
कहते हैं कि एक नगर के बाहर वन में दो महान् त्यागी महात्मा रहते थे । उनके त्याग और तपस्या की ख्याति दूर-दूर तक पहुँच गई थी । अतः नगर के राजा ने उनके दर्शन करने की इच्छा की और अपने परिवार को लेकर वन में पहुँचा ।
जब महात्माओं ने सुना कि राजा उनके दर्शन करने आ रहे है तो वे विचार करने लगे – “यह तो बहुत बुरी बात है आज राजा आया और कल पूरा शहर आएगा । भीड़-भाड़ के कारण फिर हम भजन कब करेंगे ?”
देने के लिये एक
गया तो उन्होंने
सोच-विचार कर उन्होंने अपने भजन में भंग न होने उपाय खोज निकाला । जब राजा उनकी कुटिया के पास आ आपस में झगड़ना प्रारम्भ कर दिया । एक बोला - ' तूने मेरी रोटी क्यों खाई ?' दूसरे ने उत्तर दिया- 'तू भी तो कल मेरी रोटी चुराकर खा
गया था ।'
राजा ने जब यह हाल देखा तो उसे संतों से नफरत हो गई कि ये तो एक-एक रोटी के लिये झगड़ रहे हैं । वह उलटे पाँव अपने परिवार सहित महल को चल दिया ।
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