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तुलसी ऊधंवर के भये, ज्यों बंधूर के पान ___ इस प्रकार संतों ने स्वयं बदनाम होकर भी अपने ईश-चिंतन के समय को व्यर्थ जाने से बचा लिया।
क्या आज सभी लोग ऐसा कर सकते हैं ? नहीं, उन्हें तो परमात्मा को याद करने का समय ही नहीं रहता । भले ही उनका अमूल्य समय सिनेमा देखने में, सैर-सपाटे करने में, ताश खेलने में या गप्पों में चला जाय, इसकी परवाह नहीं किन्तु अगर उनके समक्ष आत्म-चितन, शास्त्र-श्रवण या सामायिक प्रतिक्रमण का नाम ले दिया तो सीधा कहते हैं—'महाराज, हमें तो मरने की भी फुरसत नहीं मिलती।' पर सभी एक सरीखे नहीं होते । कुछ ऐसे भी होते हैं जो संसार के गोरखधंधे में से निकल नहीं पाते किन्तु पश्चात्ताप करते हुए कहते हैं:
धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायता. मानन्दाथ जलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमंकेशयाः । अस्माकं तु. मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट
क्रीड़ा-कानन केलि-कौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ॥ वे धन्य हैं जो पर्वतों की गुफाओं में रहते हैं और परम ब्रह्म की ज्योति का ध्यान करते हैं । जिनके भक्तिरसपूर्ण आनन्दाश्रुओं को उनकी गोद में बैठे हुए पक्षी निर्भयतापूर्वक पीते हैं। हमारा जीवन तो मनोरथों की बावड़ी के किनारे के क्रीड़ा-स्थान में लीलायें करते हुए ही व्यर्थ बीत रहा है ।
तो मैं आपको यह कह रहा था कि सच्चे संत दुनिया के प्रपंचों से दूर रहकर अधिक से अधिक परमार्थ चिंतन में रत रहते हैं तथा समस्त भौतिक ऐश्वर्य से मुह मोड़कर मात्र शरीर को चलाने लायक रूखा-सूखा अन्न उसे प्रदान करते हैं वह भी इसलिए कि शरीर के द्वारा ही तप किया जाता है तथा शरीर के द्वारा ही अन्य सभी शुभ क्रियायें की जाती हैं । तप रूपी अग्नि पर शरीररूपी पात्र रखे बिना आत्मरूपी मक्खन को शुद्ध नहीं किया जा सकता। बस ! यही स्वार्थ इस शरीर से उनका रहता है और इसीलिये वे शरीर टिकाये रहते हैं। ___ ऐसे संत ही संसार के सामने आदर्श-रूप बनते हैं तथा अज्ञानी मनुष्यों को सदुपदेश देकर गुणानुरागी बनाते हैं। अगर व्यक्ति गुणानुरागी नहीं होते तो उसके मानस में सद्गुणों का समावेश और संचय नहीं हो सकता और ऐसे व्यक्ति इस पृथ्वी पर केवल भारभूत होते हैं ।
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