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तुलसी ऊधंवर के भये, ज्यों बँधूर के पान
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शरीर फिर भी अपूर्ण रहा और पुनः अनन्त पुण्यों के उदय से पाँचों इन्द्रियों वाला शरीर मिल सका।
गम्भीरता से विचार कीजिये कि एक-एक इन्द्रिय प्राप्त करने के लिये अनन्त-अनन्त पुण्यों की वृद्धि करनी पड़ती है और तब पंचेन्द्रिय शरीर जीव को मिलता है । किन्तु अनन्तानन्त पुण्यों का उपार्जन करके पंचेन्द्रिय शरीर प्राप्त कर लेने पर भी अभी शरीर में महान कमी रह गई। वह कमी क्या है ? यह आप गाय, भैंस, घोड़ा व बकरी आदि पशुओं को देखकर अन्दाज लगा सकते हैं कि उनमें मन नहीं है। पंचेन्द्रिय जीवों में भी सन्नी और असन्नी दो प्रकार होते है। जिनमें मन नहीं होता वे असन्नी और मनवाले सन्नी कहलाते हैं ।
तो पंचेन्द्रिय शरीर प्राप्त हुआ किन्तु मन नहीं मिला तो पशुवत् जीवनयापन करना पड़ा। और जब पुनः अनन्त पुण्यवानी ने जोर मारा तो फिर हम सन्नी पंचेन्द्रिय यानी मनुष्य के रूप में आए। अब आप स्वयं ही विचार कर लो कि एक-एक इन्द्रिय और उसके पश्चात् मन भी पाने के लिये अनन्तअनन्त पुण्यवानी को जोड़ते जाँय तो कितने पुण्य कर्मों का संचय चाहिये ? ___ और उसके बाद भी मन सहित यह मनुष्य शरीर पा लिया और अनार्य क्षेत्र, हीन जाति तथा निकृष्ट कुल मिल गया तो यह मानव-शरीर पाकर भी हम क्या कर सकते हैं ? अत: यह सब प्राप्त करने के लिये भी अनन्त पुण्य की फिर आवश्यकता पड़ गई । और तब हमें उच्च कुल, उच्चजाति, आर्य क्षेत्र मिला तथा संत-समागम प्राप्त हो सका। .
यह सब कल्पनातीत पुण्यों के संयोग से ही प्राप्त हो सका है अन्यथा आप उच्चकुल में जन्म लेकर और उस पर भी आज इस स्थान पर कैसे बैठे हुए होते ? आज ऐसे-ऐसे भी क्षेत्र हैं, जहाँ पर साधु-साध्वियों का आना जाना कभी नहीं होता और ऐसी स्थिति में आत्म-साधन तथा परमार्थ चिंतन तो हो ही कैसे सकता है । बिना सत्संग किये तथा शास्त्रों का श्रवण किये आप कैसे जान सकते हैं कि आत्म-तत्व का क्या रहस्य है और उसके उद्धार के लिये आपको क्या-क्या करना चाहिये, कैसे बोलना, कैसे चलना, कैसे रहना और कैसे खाना चाहिये
आप सोचेंगे कि यह सब तो प्राणी स्वयं ही कर लेता है इसमें जानना और सीखना कैसा ? पर यह बात नहीं है । खाना, पीना, सोना तथा बैठना तो पशु भी कर लेते हैं और अज्ञानी मनुष्य भी करते हैं । किन्तु जिस भव्य प्राणी को अपने मानव-जीवन का सदुपयोग करना है, तथा इसकी सहायता से
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