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आनन्द-प्रवचन भाग - ४
पर यहां जागने से अभिप्राय आपकी इस द्रव्य - निद्रा से नहीं है अपितु प्रमाद की नींद से है । जो प्रमाद निद्रा हमें शुभ कार्यों के करने में बाधा
ती है उस निद्रा से जगाने की प्रेरणा उपनिषद् दे रहे हैं । प्रमाद - निद्रा में सोते-सोते तो जीव को अनन्त काल व्यतीत हो गया है और महा मुश्किल से अब वह मानव शरीर प्राप्त कर सका है, जिसमें शुभ कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं । पर इसे भी अगर इसी प्रकार सोते हुए खो दिया तो फिर न जाने चौरासी लाख योनियों में से कौन-कौन-सी निकृष्ट योनि में आत्मा कैद होगी जहां फिर कुछ भी नहीं किया जा सकेगा । यह जीवन दान देने, परोपकार करने, तप करने, संयम का पालन करने के लिये और संक्षेप में धर्माराधन करके आत्मा को संसार मुक्त करने के लिये है । यही उपदेश संत देते हैं तथा शास्त्र भी यही कहते हैं ।
किन्तु वही उपदेश भव्य प्राणी पूर्णतया ग्रहण कर लेते हैं, कुछ ऐसे होते हैं जो थोड़ा बहुत अपनाते हैं किन्तु कुछ अभव्य ऐसे भी होते हैं जिन्हें रंच मात्र भी वह नहीं लगते । ऐसे व्यक्ति अनन्त काल से जन्म-मरण करते आए हैं और अनन्त काल तक करते ही रहेंगे ।
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किन्तु बंधुओ, हमें ऐसा नहीं करना है तथा शास्त्रों के इन उपदेशों कां पूर्णतः अपनाना है जो पुकार कर कहते हैं :
जागरह ! णरा णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी । जो सुवति न सो सुहितो, जो जग्गति सो सया सुहितो ॥ सुवति सुवंतस्ससुयं, संकियं खलियंभवे पमत्तस्स । परिचितमप्पमत्तस्स ॥ जागरमाणस्स सुयं, थिर
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कहा है- 'मनुष्य सदा जागते रहो, जागने वाले की बुद्धि सदा वर्धमान रहती है । जो सोता है वह सुखी नहीं होता, जागृत रहने वाला ही सुखी रहता है ।
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- निशीथभाष्य
सोते हुए का श्रुत ज्ञान सुप्त रहता है, प्रमत्त रहने वाले का ज्ञान शंकित एव स्खलित हो जाता है जो अप्रमत्तभाव से जागृत रहता है उसका ज्ञान सदा स्थिर एवं परिचित रहता है । यानी अप्रमत्त की प्रज्ञा सदा जाग्रत
रहती है।
इसलिए प्रत्येक मुमुक्षु को सदैव भाव निद्रा से जागृत रहना चाहिए तथा स्वयं तो सद्गुरुओं से बोध प्राप्त करना ही चाहिए साथ ही अपने सम्पर्क में
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