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________________ १०४ आनन्द-प्रवचन भाग-४ स्वामी बनता है और मनुष्य की अपेक्षा अधिक सुखों का उपभोग करता है। किन्तु उससे स्थायी लाभ क्या है ? वहाँ का समय पूरा करने के पश्चात् फिर उसका संसार-भ्रमण चालू हो जाता है। क्योंकि वह कर्मों को काटकर संसार से मुक्त होने की करणी तो स्वर्ग में कर ही नहीं सकता । ऐसी शक्ति, करणी सम्पूर्ण कर्मों का नाश करके मोक्ष गति प्राप्त करने की ताकत केवल मनुष्य में ही है। वही अपनी उत्तमोत्तम करनी के द्वारा संसार से मुक्त होकर ईश्वरत्व को भी प्राप्त कर लेता है। एक पाश्चात्य विद्वान् डिजरायली का कथन भी है: "Man that is made in the image of the crertor is made for godlike deeds," मनुष्य ही सृष्टिकर्ता के प्रतिबिम्ब में ईश्वरतुल्य कार्य के लिये बनाया गया है। अभिप्राय यही है कि इन्सान चाहे तो देवता तो क्या ईश्वर भी बन सकता है। पर देव ऐसा नहीं कर सकते अर्थात् वे कदापि कर्म नाश करके ईश्वरत्व को प्राप्त नहीं कर सकते और इसीलिये उन्हें मनुष्य के समक्ष अपना मस्तक झुकाना पड़ता है। कविता के आगे की लाइनें हैं : तपस्या से इसी ने जाल, कर्मों का जला डाला। धर्म पर वीर बनकर जल गया यह मिसले परवाना ॥ इसी ने राम बनकर वन में चौदह साल काटे थे। यही इन्सान था गांधी, है भारत जिस पै दीवाना । इन पंक्तियों में भी मनुष्य का महत्त्व बताते हुए कहा गया है-वह इन्सान ही था, जिसने घोर तप करके अपने कर्मों का सम्पूर्णतया नाशकर लिया, वह इन्सान ही था जो धर्म के लिये इस प्रकार बलिदान हो गया, जिस प्रकार दीपक के ऊपर पतिंगा मर मिटता है। आगे कहा है-वह राम इन्सान ही था, जिसने अपने पिता के वचन की रक्षा करने के लिये चौदह वर्ष घोर जंगल में बितौए तथा समस्त मानवोचित गुणों को अपने में धारण करके मर्यादा-पुरुषोत्तम के रूप में संसार के समक्ष आदर्श बन गया। इतना ही नहीं, वह गाँधी भी इन्सान था जिसने संसार के भोगोपभोगों का त्याग करके लंगोटी धारण की तथा भारत के करोड़ों व्यक्तियों को अहिंसा के मार्ग पर चलाकर भी सैकड़ों वर्षों के गुलाम भारत को परतंत्रता की बेड़ियों से छुड़ाकर आजाद किया । मुट्टीभर हड्डियों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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