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इन्सान ही ईश्वर बन सकता है !
१०३ उसे पैरों से खूब गूधता है, ठोक-पीट कर उसका पिंड बनाता है, चाक पर चढ़ाकर सही आकृति प्रदान करता है और उसके पश्चात् ही अग्नि में झोंककर उसे पकाता है । तब कहीं जाकर वह मंगल कलश के रूप में दुनिया में आता है तथा सन्नारियों के मस्तक की शोभा बढ़ाता है।
कहिये ! कितनी कठिनाइयों में से घड़ा गुजरा ? तब कहीं लोग उसे शुभ और उपयोगी समझने लगे । इसी प्रकार जब तक मानव आकृति से ही मानव रहता है, वह मिट्टी के समान किसी के लिये भी उपयोगी नहीं होता उलटे, अपने स्वार्थ के कारण औरों के लिये सिर दर्द बन जाता है, जबकि बेचारी मिट्टी तो मिट्टी के रूप में रहकर किसी का अहित नहीं करती।
तो मैं बता यह रहा था कि मात्र आकृति से रहा हुआ मानव सच्चा मानव नहीं कहला सकता। वह तभी मानव कहलाने का अधिकारी बनेगा जब उसमें मानवोचित गुण आएंगे। अर्थात् जब दीन-दुखी व्यक्तियों को देख कर उसके हृदय में करुणा का उद्रेक होगा और वह अपनी शक्ति के अनुसार उनके कष्टों को मिटाने का प्रयत्न करेगा, नारियों के प्रति माता और बहन भाव रखते हुए वक्त आ पड़ने पर उनकी इज्जत की रक्षा के लिये अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिये भी तैयार रहेगा, रोग-पीड़ित प्राणी की सेवा-सुश्रुषा के लिये कटिबद्ध रहेगा, तथा धर्म का आचरण स्वयं करते हुए औरों को भी सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देगा तभी वह सच्चा मानव या सच्चा इन्सान कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकेगा। कवि ने आगे कहा है:
गति इन्सान की सबसे है उत्तम इसलिये मानी। कि शक्ति है फकत इन्सान की मुक्ति को पा जाना ।। यह वो इन्सान है, जिसको झुकाया सर है देवों ने ।
यही इन्सान सीखा है, जो इश्वर बन के दिखलाना ॥ इस संसार में जीव चार गतियों में जन्म लेता है। वे हैं-नरकगति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देव गति । अनन्तानन्त काल तक नरक निगोदादि निकृष्ट योनियों में पुनः पुनः जन्ममरण करने के पश्चात् जीव मनुष्य और देव योनि प्राप्त करता है। मनुष्य गति और देव गति दोनों उत्तम हैं किन्तु इन दोनों में भी श्रेष्ठ है मनुष्य गति । आप सोचेंगे, मनुष्य तो स्वर्ग में देव बन जाने की अभिलाषा रखते हैं तथा इसीलिये प्रयत्न करते हैं कि हमें स्वर्ग मिले।
आपका विचार सही है, स्वर्ग में देव बनने पर जीव अतुल ऋद्धि का
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