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________________ १०२ आनन्द-प्रवचन भाग-४ के कारण पशु से अधिक श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता क्योंकि खाना और सोना तो पशु भी जानते हैं फिर पशु और उन आकृतिधारी मनुष्यों में अन्तर ही क्या रहा ? आज भारत में आकृति से मनुष्य कहलानेवालों की कमी नहीं है । जन संख्या बढ़ती जा रही है और इसीलिये परिवार-नियोजन का प्रयत्न चालू है। तो मनुष्यों की कमी यहाँ नहीं है, कमी है मानवता प्राप्त कर लेने वाले सच्चे मानवों की। मानव तो हमें प्रत्येक क़दम पर मिलते हैं किन्तु मानवता कितनों में मिलती है यह जानना बड़ा कठिन है । आज की बढ़ती हुई बेकारी के युग में आप नौकरी देने के लिये एक उम्मीदवार का विज्ञापन दिलवा दीजिये, और कल ही आपको एक सौ मनुष्य मिल जाएंगे। पर वे केवल पेटपूर्ति के लिये ही काम करने वाले होंगे। उनमें सच्चे मानव नहीं मिलेंगे। हम देखते हैं कि आज किसी को हम गधा कह दें तो उसके क्रोध का पारा अपनी सर्वोच्च सीमा पार कर जाता है। अपने आपको पशु कहलवाना कोई भी पसंद नहीं करता । किन्तु अगर दीर्घ दृष्टि से देखा जाय तो हमें ऐसे मनुष्य ही अधिक मिलेंगे जिन्हें पशु कहना पशुओं का भी अनादर करना है। बेचारे पशु अपनी भूख-प्यास मिटाते हैं और अपने आप में मगन रहते हैं। वे अन्य किसी का बुरा नहीं सोचते, किसी से ईर्ष्या नहीं करते और अकारण किसी को कष्ट नहीं पहुंचाते । किन्तु मानव तो हमें ऐसे ही अधिक मिलेंगे जो और की बढ़ती को देखकर जल-भुन जाएँगे और उन्हें नीचा दिखाने के प्रयत्न में ही सदा बने रहेंगे। अपने भोग-विलास के साधनों की पूर्ति करने के लिये वे न जाने कितने निर्धनों के पेट पर लात मारते हुए देखे जाएँगे और अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये जघन्य कार्य करने से भी नहीं चूकेंगे। इसीलिये मैंने अपने पिछले एक प्रवचन में भर्तृहरि के श्लोक के आधार पर प्रश्नोत्तर के रूप में बताया था कि जिन मनुष्यों में विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण तथा धर्म आदि चीजें नहीं हैं वह पृथ्वी पर भारभूत है तथा पशु से भी गया बीता है, और ऐसे व्यक्ति से पशु भी अपनी तुलना किया जाना पसंद नहीं करते। ___ आपके हृदय में एक छोटा सा प्रश्न संभवतः खड़ा होगा कि मानव और मानवता में क्या अन्तर है ? संक्षिप्त रूप से उसका यही उत्तर दिया जा सकता है कि मानव और मानवता में उतना ही अन्तर है जितना मिट्टी और घड़े में । कच्ची मिट्टी न जल भरने के काम में आती है और न ही किसी अन्य पदार्थ को उसमें रखा जा सकता है। कुम्हार मिट्टी में पानी डालकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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