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________________ भव-पार कराने वाला सदाचार εε fe आप केवल गहनों की पहचान बताएँ किन्तु ऐसी कोई बात न कहें जिससे उन हत्यारों के अपराध की पुष्टि हो जाय । यद्यपि हम जानते है कि उन तीनों ने अपने पुत्र का खून किया है किन्तु कानून के अनुसार अगर उन्हें मृत्यु दंड दे दिया गया तो उनकी माताओं को भी ऐसा ही घोर दुःख होगा जैसा मुझे अपने पुत्र की हत्या के कारण हो रहा है । अत: आप उन्हें क्षमा करके अभयदान दीजियेगा । सेठ गंगाराम जी ने यही किया । फलस्वरूप उन्हें गहने मिल गए और वे तीनों हत्यारे भी रिहा हो गये तथा उन्होंने कुमार्ग छोड़कर सन्मार्ग पर चलने का निश्चय किया ? क्षमा का कितना जबरदस्त उदाहरण है ? पुत्र के हत्यारों को भी क्षमा कर देने वाले माता-पिता क्या सहज ही मिल सकते हैं ? नहीं, ऐसी महान् आत्माएँ क्वचित ही प्राप्त होती हैं और उनमें इतनी जबरदस्त शक्ति उनके सदाचार से जागृत होती है । आप संभवत: नहीं जानते होंगे कि सेठ गंगाराम और उनकी सच्ची अर्धा गिनि केसरबाई ही जैन दिवाकर मुनि श्री चौथमल जी म० के मातापिता थे । ऐसे सदाचारी और धर्मपरायण व्यक्ति ही स्वयं अपना आत्मोत्थान करते हैं तथा औरों को भी उसी मार्ग पर लेकर चलते हैं । हमारे शास्त्र कहते हैं भावणा जोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टई ॥ —सूत्रकृतांग, १५-५ अर्थात् — जो आत्मा पवित्र भावनाओं से शुद्ध है, वह जल पर रही हुई नाव के समान है । वह आत्मा नौका की तरह संसार रूप समुद्र के तट पर पहुँच कर सम्पूर्ण दुखों से मुक्त हो जाती है । ध्यान में रखने की बात है कि नौका स्वयं तो पार होती ही है, वह उन्हें भी पार पहुँचा देती है जो उसका आश्रय लेते हैं । इसी प्रकार सदाचारी पुरुष स्वयं भी दुखों से मुक्त होते हैं और अपना सहारा लेने वाले अन्य प्राणियों को भी संसार के दुखों से मुक्त करा देते हैं । हम देखते हैं कि वही नौका इस किनारे से उस किनारे तक यात्रियों को पहुँचा सकती है जो छिद्र युक्त न हो । छिद्रों वाली नौका न तो स्वयं ही पार लग सकती है, न दूसरों को ही पार उतार सकती है । वह निश्चित ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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