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आनन्द-प्रवचन भाग-४
अतल जल में डूब जाती है । दूसरे प्रकार जिस व्यक्ति के जीवन में दोषों या अवगुणों के छिद्र होंगे वे न तो स्वयं ही संसार - सागर से पार उतर पाएंगे और न ही ओरों को पार कर सकेंगे । स्वयं डूबेंगे तथा दूसरों को भी डुबोयेंगे ।
प्रश्न उठता है कि जीवन के वे अवगुण कौन-कौन-से हैं जो कदाचार बन कर जीवन को दोष युक्त बनाते हैं ? उत्तर है— काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, असत्य, दम्भ, द्वेष, द्रोह, हिंसा, मोह, विलासिता आदि अनेक दोष हैं जो जीवन रूपी नौका के छिद्र हैं । इन छिद्रों के रहते इस नाव का संसार-सागर से पार हो जाना कठिन ही नहीं, असंभव है ।
इसलिये जो इस सागर से पार उतरने की आकांक्षा रखता है उसे इन समस्त दोषों से अपने आपको परे रखना चाहिये । तथा स्मरण रखना चाहिये कि व्रत उपवासादि करने की अपेक्षा तथा घोर तप करके शरीर को सुखाने की अपेक्षा भी जीवन में दया, करुणा, स्नेह, सद्भावना, संतोष तथा क्षमा आदि सद्गुणों को उतारना अधिक लाभप्रद है । सामायिक, प्रतिक्रमण, पोषध आदि करने से और भूखे रहने मात्र से ही धर्म का अनुष्ठान नहीं हो जाता है । व्यक्ति सच्चे मायने में तभी धर्मात्मा कहला सकता है, जबकि वह सदाचारी बने । उत्तम आचार ही जीवन का सबसे बड़ा धर्म है ।
यजुर्वेद में भी कहा गया है
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"आचारः प्रथमो धर्मो नृणां श्रेयस्करो महान् सात्विक आचार ही पहला धर्म है, और यही मनुष्यों का महान् कल्याण करने वाला है ।
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तो बंधुओ, जो विचारशील पुरुष सद्गुणों का संचय करेंगे, उनकी रक्षा करने के लिये सजग और सावधान रहेंगे तथा उन्हें अपने जीवन में उतार कर स्वयं सन्मार्ग पर चलते हुए औरों को भी उस पर चलने की प्रेरणा देंगे वे निश्चय ही भव-पारावार के पार पहुँचेंगे तथा अक्षय सुख के अधिकारी बनेंगे |
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