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आनन्द- प्रवचन भाग-४
तथा वहाँ पर प्रत्येक व्यक्ति दूसरे को उम्र के अनुसार दादा, चाचा, भाई आदि संबोधन से बुलाता है तथा उसी के अनुसार व्यवहार रखता है ।
आगे कहा गया है:
हक छीनना किसी का, समझते थे पाप वह । करते थे अपनी गलतियों पर पश्चाताप वह ॥
प्राचीन समय के सदाचारी व्यक्ति धर्म-भीरू और पाप से डरने वाले होते थे । वे किसी का भी हक छीनना बड़ा भारी पाप समझते थे चाहे वह भाई, पड़ौसी या व्यापार का साझीदार, कोई भी क्यों न हो । और कदाचित् परिस्थिति वशात् कभी ऐसा हो जाता तो उसके लिये वे घोर पश्चाताप करके प्रायश्चित्त करते थे ।
आज लोगों का खयाल है कि जो कार्य हो चुका है, उसके लिये पश्चाताप करने से कोई लाभ नहीं । किन्तु ऐसा विचार करने वाले बड़ी भूल करते हैं और इससे साबित होता है कि उनके सामने न कोई ऊँचा लक्ष्य है और न ही उन्हें आत्म शुद्धि की महत्ता का ज्ञान ही है ।
पश्चात्ताप करने से आत्मा को बड़ा लाभ होता है । पाश्चात्ताप की अग्नि में किये हुए समस्त पाप भस्म हो जाते हैं तथा आत्मा नवीन पाप करने से भयभीत हो जाती है ।
एक उर्दू के कवि ने तो पश्चात्ताप का महत्त्व बताते हुए कहा है कि जो व्यक्ति अपने दुष्कृत्यों के लिये पश्चात्ताप नहीं करेगा उसे अन्त में भयंकर रूप से पछताना पड़ेगा और मजबूर होकर कहना पड़ेगा
मैं अपने बद अमलों से हूँ, इस कदर नादम । कि शरम आती है खुद अपनी शरमसारी पर ॥
- सहर
अर्थात् — मैं अपने कदाचार से इतना लज्जित हूँ कि मुझे अपनी लज्जा पर भी लज्जा आती है ।
आशय यही है कि अगर मनुष्य को अपना जीवन शुद्ध बनाना है तो उसे अपने प्रत्येक पाप की आलोचना और उसके लिये पश्चात्ताप करना चाहिये । पश्चात्ताप होने पर मन में प्रायश्चित की भावना आती है और प्रायश्चित्त करने पर आत्मा शुद्ध बनतो है । अगर हम इतिहास उठाकर देखें तो मालूम पड़ सकता है कि अपने पापों के लिये पश्चात्ताप और प्रायश्चित करते हुए
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