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________________ भव-पार करानेवाला सदाचार ६३ अनेकानेक पापी भी शुद्ध और साधनामय जीवन को अपनाकर इस संसार से तर गए हैं। स्वयं गौतम स्वामी जो पूर्व में इन्द्रभूति ब्राह्मण थे अनेक यज्ञों का आयोजन करके उनमें निरपराध प्राणियों की बलि का विधान करते थे, डाक अंगुलिमाल, हत्यारा अर्जुन माली आदि अनेकों व्यक्तियों के उदाहरण हमारे समक्ष आते हैं जो महापापी थे, किन्तु अपने पापों पर पश्चात्ताप होने के कारण वे मुक्ति के सही मार्ग को पा सके। और तो और चण्डकौशिक सर्प, जिसके प्रश्वास मात्र से मीलों तक के जीव-जन्तु अपनी इहलीला समाप्त कर जाते थे और जिसके डसने से लाखों प्राणियों का प्राणनाश हुआ था, वही भयंकर भुजंग अपने समस्त पापों का घोर पश्चात्ताप करके अपनी आत्मा का कल्याण करने में समर्थ बन गया । तो मैं आपको यह बता रहा था कि प्राचीन काल के भारतवासी धर्म को सच्चे मायने में अंगीकार करते थे और उसके कारण किसी का भी हक छीन कर उसका दिल दुखाने को घोर पाप समझते थे। तथा संयोगवश कभी ऐसा हो जाता तो उसका सच्चे हृदय से पश्चात्ताप करते थे। पश्चात्ताप के द्वारा वे अपनी आत्मा को निर्मल बनाकर चारित्र का सही रूप में पालन करते थे और आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होते थे। कविता में आगे कहा गया है पत्नी पति के रंजो-अमन में शरीक थी। अरधंगी बनी थी असल में पत्नी ही ठीक थी । इन लाइनों में बताया गया है कि उस काल में पत्नी, नाम मात्र की पत्नी नहीं होती थी, अपितु वह सच्ची धर्म-पत्नी होती थी जो अपने पति को सुमार्ग पर चलाती थी। अगर कभी पति के कदम धर्म मार्ग के विपरीत उठ जाते अथवा लड़खड़ा जाते तो वह अपनी उचित सलाह, प्रेरणा और प्रयत्न से उसे पुनः सत्पथ पर ले आती थी। उस काल नारियों में आत्म-विश्वास से परिपूर्ण दृढ़ मनोबल होता था इसीलिए सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक सभी क्षेत्रों में उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त था। वे समाज में हीन नहीं मानी जाती थीं वरन् उन्हें सच्चे रूप में पुरुष की अर्धा गिनी माना जाता था। महाकवि कालिदास की पत्नी ने उन्हीं कालिदास को जो निरक्षर भट्टाचार्य थे तथा पेड़ की जिस डाली पर बैठे थे उसी को काटने का प्रयास कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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