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भव - पार करानेवाला सदाचार
बारात और द्वाराचार हुआ किन्तु भांवर पड़ने से पहले ही दूल्हे के पिता ने रुपयों की मांग की । रामदास ने हाथ जोड़कर चोरी की बात बतलाई और अपनी टोपी समधी के पैरों पर रखकर उनसे रुपये न दे पाने लिए क्षमा मांगी ।
किंतु दूल्हे का बाप आग-बबूला हो गया और उसने हाथ पकड़ कर फेरों के लिए तैयार अपने पुत्र को वहां से खींच लिया और बोला - " यह शादी नहीं होगी, मैं अपने लड़के का अन्यत्र विवाह करूंगा ।" उसने बरातियों को उसी समय लौट चलने का आदेश दिया ।
रामदास ने लाख मिन्नतें कीं पर वह नहीं माना । अन्ततः और कोई उपाय न देखकर रामदास अपने गाँव के सबसे बड़े बुजुर्ग श्री किशनदास जी के पास दौड़ा गया और उनसे सब हाल कहा । किशनदास जी उसी क्षण नंगे पैर ही रामदास के यहाँ आए और दूल्हे के ससुर को समझाने लगे । किन्तु वह टस से मस नहीं हुआ और रवाना होने की तैयारी करने लगा ।
यह देखकर किशनदास जी ने शान्त और गम्भीर स्वर से कहा - "यह बारात बिना विवाह किये नहीं लौटेगी । रामदास की बेटी हम सबकी बेटी है और इनकी इज्जत में हमारी सबकी इज्जत है ।" यह कहते हुए उन्होंने स्वयं अपने पास से पांच सौ की रकम सर्वप्रथम अपनी जेब से निकाल कर रखी तथा गाँव के अन्य निवासियों से भी जितना हो सके उसमें मिलाने की अपील की ।
बात की बात में सभी ने जो बना दिया और वह रकम दो हजार से भी अधिक हो गई । दूल्हे के पिता को निश्चित पैसा दे दिया गया तथा बाकी अन्य कार्यों में खर्च किया गया । विवाह सानन्द समाप्त हुआ और बरात बहू को लेकर लौटी |
कहने का अभिप्राय यही है कि प्राचीन काल में जिस प्रकार छोटे व्यक्ति बड़ों का आदर सम्मान करते थे, उसी प्रकार बड़े भी अपने से छोटों पर स्नेह रखते थे तथा उनकी भलाई के लिये सभी कुछ किया जा सकनेवाला कार्य करते थे । उस समय वे नहीं सोचते थे कि यह हमारा सगा -संबंधी या परिवार IT व्यक्ति नहीं है ।
आज तो बम्बई, कलकत्ता तथा दिल्ली आदि बड़े-बड़े शहरों में तो पड़ोसी अपने पड़ौसी का नाम तक जानना नहीं चाहता । हाँ, भारत के छोटे छोटे गाँवों में अवश्य ही अपनत्व एवं आपसी स्नेह की भावना पाई जाती है ।
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