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________________ ९० आनन्द-प्रवचन भाग---४ तथा उसके वचन का अपने प्राण देकर भी पालन करता था। अपने पिता के वचन की रक्षा करने के लिए ही राम ने चौदह वर्ष वनवास किया था । सदाचारी पुत्र यही मानता था नह्यतो धर्मचरणं, किंचिदस्ति महत्तरम् । यथा पितरि शुश्रूषा, तस्य वा वचनक्रिया ।। पिता की सेवा तथा उनकी आज्ञा-पालन जैसा धर्म कोई दूसरा नहीं है। इस प्रकार प्राचीन काल में पिता एवं पुत्र दोनों ही एक दूसरे पर अपने आपको न्योछावर कर देने के लिए तैयार रहते थे तथा अपने सदाचरण द्वारा संसार के समक्ष आदर्श-रूप बन जाते थे। कविता में आगे कहा गया है छोटों को था बड़ों की बुजुर्गी का एहतराम । छोटों पर थीं बड़ों की निगाहें करम मदाम ॥ यानी प्रत्येक व्यक्ति अपने से बुजुर्ग व्यक्तियों का अत्यन्त आदर और सम्मान करता था । चाहे वह उसका पिता या दादा हो अथवा पड़ौसी या गांव का कोई भी और किसी जाति का ही व्यक्ति क्यों न हो। उस समय एक व्यक्ति की बेटी या बहू सम्पूर्ण गांव की बेटी और बहू मानी जाति की तथा एक व्यक्ति की इज्जत पर खतरा आते ही सम्पूर्ण गांव और गांव के बुजुर्ग उस कठिनाई का मुकाबला करने के लिए कमर कस तैयार हो जाते थे। बेटे की शादी नहीं करूंगा बहुत पहले की एक घटना है—मध्यप्रदेश के एक गांव में रामदास नामक एक व्यक्ति रहता था। वह निर्धन था, किन्तु किसी प्रकार उसने एकएक पैसा जोड़कर दो हजार रुपया इकट्ठा किया और अपनी पुत्री का विवाह समीप के किसी गांव में तय किया। लड़की का ससुर भी धनवान नहीं था किन्तु बड़ा लालची था । दो हजार नकद लेने की बात करके उसने लड़के का संबंध रामदास की पुत्री से कर दिया । किन्तु दुर्भाग्यवश रामदास की पुत्री की शादी में दो ही दिन रहे थे कि चोरों ने सेंध लगाकर उसका जो कुछ भी था वह चुरा लिया । साथ ही वे दो हजार रुपये ले गए । रामदास ने विचार किया कि चोरी की बात बताने पर लड़की का ससुर दया करके मान जायेगा तथा रुपयों को मांग नहीं करेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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