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भव- पार करानेवाला सदाचार
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सदाचार नहीं है तो उसके शरीर का सौन्दर्य, बल या वैभव सब नहीं के बराबर हैं ।
प्राचीन काल में हमारा भारतवर्ष अपने उच्चकोटि के सदाचार के कारण ही जगत में विख्यात था । भारत के निवासियों का सदाचारी जीवन अन्य समस्त देशों के लिए आदर्श बना हुआ था तथा विदेशी मुक्त कंठ से भारतवासियों की प्रसंशा करते हुए उनका लोहा मानते थे । इतिहास हमें बताता है कि शरण में आए हुए प्राणी की रक्षा करने में अबलाओं के सतीत्व को बचाने में अथवा अन्य किसी भी विपत्ति में ग्रस्त प्राणी को उससे छुटकारा दिलाने में भारतवासी अपने प्राणों का बलिदान भी कर देते थे । सदाचार के ऐसे उदाहरण इतनी प्रचुर संख्या में प्राप्त किए जा सकते हैं कि जिनकी गणना करना भी संभव नहीं है ।
एक उर्दू भाषा के कवि ने भारत के उस अतिशय उज्ज्वल अतीत का चित्रण करते हुए लिखा है -
वह भी कभी था वक्त कि अपनों से प्यार था । भाई पै भाई बाप पै बेटा निसार था ।।
कवि ने उस काल के पारिवारिक जीवन की प्रशंसा करते हुए बताया है कि उस समय संयुक्त परिवार की प्रथा तो थी ही, परिवार के सभी सदस्यों में भी अथाह प्रेम होता था । भाई-भाई के लिए जान देता था तथा भाई के अभाव को वह अपनी दाहिनी बांह का टूट जाना मानता था । राम और लक्ष्मण का अटूट स्नेह जगत के लिए आदर्श है । आज कौन व्यक्ति ऐसा होगा जो उनके नाम से अपरिचित होगा तथा उन भाइयों का नाम गद् गद् होकर न लेता होगा । भरत के समान भाई क्या आज के संसार में उपलब्ध हो सकता है, जिसने संपूर्ण अयोध्या का राज्य अपने अधिकार में होने पर भी अपने बड़े भाई राम की पादुकाओं को सिंहासन पर रखकर राज्य-कार्य संभाला । उस काल में छोटा भाई अपने बड़े भाई को पिता के समान और बड़ा भाई छोटे को पुत्रवत् प्यार करता था । ऐसा सदाचारी जीवन का ही मधुर परिणाम होता था । और उसी के कारण पिता अपने पुत्र का जीवन बनाने के लिए अपनी समस्त खुशियों को उस पर न्योछावर कर देता था तथा स्वयं अपने जीवन में किसी दोष को उत्पन्न नहीं होने देता था, कि कहीं पुत्र में भी वे आ न जांय ।
इसी प्रकार पुत्र भी अपने पिता का देवता के समान आदर करता था
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