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________________ सच्चे सुख का रहस्य ८५ धारण कीजिये, मैं तो आपका सेवक हूँ। और आपकी आज्ञा का सदा पालन करूंगा।" भाइयो ! आज जहाँ भाई-भाई छोटी-छोटी वस्तुओं के लिये और चन्द रुपयों के लिये ही बुरी तरह से झगड़ पड़ते हैं तथा आवेश आ जाने पर तो मार-पीट से भी वंचित नहीं रहते, वहा राज्यवर्धन और हर्षवर्धन दोनों भाई उस विस्तृत राज्य को भी एक-दूसरे को देने के लिये कटिबद्ध थे। यह निरासक्त भावनाओं का ही परिणाम था। अन्त में राज्यवर्धन के अतीव आग्रह के कारण छोटे भाई हर्षवर्धन को ही राज्य स्वीकार करना पड़ा और राज्यवर्धन अपने अधिकार का त्याग करके वन में साधना करने चल दिये। त्याग की भावना कैसी जबर्दस्त और प्रभावशाली होती है कि जिसके कारण व्यक्ति राजपाट को भी ठोकर मार देता है । तथा अकिंचन बनकर पूर्ण संतोष पूर्वक आत्म-साधना में जुट जाता है। इतिहास को उठाकर देखने पर हमें अनेकानेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि बड़े-बड़े राजा, महाराजा और चक्रवर्ती भी अपना सर्वस्व त्यागकर साधु बन गये तथा संत-जीवन अपनाकर आत्म-कल्याण में जुट पड़े। राजा भर्तृहरि ने 'वैराग्य शतक' में कहा भी है: रम्यं हऱ्यातलं नं किं वसतये श्राव्यं न गेयादिकं. किंवा प्राणसमासमागम सुखं नैवाधिकं प्रीतये । किन्तु भ्रान्तपतत्पतङ्गपवनव्यालोल दीपाङ्क र च्छाया चंचल माकलय्य-सकलं सन्तो वनान्तं गताः ॥ अर्थात-क्या संतों के रहने के लिये उत्तमोत्तम महल नहीं थे ? क्या सनने के लिये उन्हें उत्तमोत्तम गायन नहीं थे ? क्या उन्हें प्रिय और सुन्दरी स्त्रियों के संगम का सुख न था जो वे लोग वनो मे रहने के लिये गये ? ___ उन्हें सब कुछ उपलब्ध था किन्तु उन्होंने इस जगत को, गिरनेवाले पतंग के पंखों से उत्पन्न हवा से हिलते हुए दीपक की छाया के समान चंचल समझकर त्याग दिया; अथवा उन्होंने मूर्ख पतिगे की भॉति, जो हवा से हिलते हुए दीपक की छाया में घूम-घूम कर स्वयं को जला कर भस्मीभूत कर देता है, संसार को अपना नाश कराते देखकर संसार छोड़ दिया। ____ आशय यही है कि यह संसार दीपक की लौ के समान है और इसमें रहने वाले जीव पतिंगों के सदृश । जिस प्रकार अज्ञानी पतिंगे दीपक से मोह रखते हैं और उसी के आस-पास चक्कर काटते हुए जलकर भस्म हो जाते हैं । उसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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