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आनन्द-प्रवचन भाग-४
प्रकार मानव भी संसार के असली तत्त्व को न समझने के कारण इसके मोह में फँसकर नष्ट हो जाते हैं अर्थात्-सांसारिक पदार्थों में आसक्ति और मोह रखने के कारण प्रगाढ़ कर्मों का बंधन कर लेते हैं तथा अनन्तकाल के लिये पुनः संसार-परिभ्रमण करने को बाध्य हो जाते हैं । जिस तरह पतंगे को यह ज्ञान नहीं होता कि दीपक से मोह करने से कोई लाभ तो होगा नहीं, उलटे मेरी जान जाएगी। उसी प्रकार अज्ञानी मानव यह नहीं सोच पाते कि इस संसार के क्षण भंगुर पदार्थों में आसक्ति रखने से सुख तो क्षणिक मिलेगा किन्तु आत्मा कर्मबद्ध होकर अनन्त काल तक नरक तथा तिर्यंचादि योनियों में जाकर असह्य दुःख भोगती रहेगी। ____पर विवेकी और ज्ञानी पुरुष इस यथार्थ को समझ लेते हैं तथा भगवान के कहे हुए इन शब्दों पर पूर्णतया विश्वास करते हैं
'कामे कमाही कमियं खु दुःक्खं ।' कामनाओं को जीत लो दुःख दूर हो जाएगा।
इस एक वाक्य में ही अनन्त काल से उलझी हुई महाजटिल समस्या का अति सुन्दर समाधान दिया हुआ है कि मानव जब तक राग-द्वष के फेर में पड़ा है तथा कामनाओं का दास बना हुआ है, तब तक संसार के समस्त पदार्थों में से कोई एक अथवा सब इकट्ठे होकर भी उसे दुःखों से नहीं बना सकते और सुख की प्राप्ति नहीं करा सकते।
इसीलिये वह समस्त भौतिक सुखों को ठोकर मार कर आत्म-साधना में जुट जाता है ऐसे महान् पुरुष के लिये ही किसी कवि ने कहा है
भोजन को करि एट, दसों दिसि बसन बनाये । भखै भीख को अन्न, पलंग पृथ्वी पर छाये । छांडि सबन को संग, अकेले रहत रैन-दिन । निज आतम सौ लीन, पौन संतोष छिनहि छिन । मन को विकार इन्द्रीन को डार तोर मरोर जिन।
वे धन्य-धन्य सन्यास धन कर्म किये निर्मूल तिन । कहते हैं कि वे सच्चे सन्यासी धन्य है जिन्हें किसी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं, भोजन वस्त्र की भी परवाह नहीं । दसों दिशाएँ ही उनके लिये वस्त्र हैं, भिक्षा में लाया हुआ रूखा-सूखा अन्न स्वादिष्ट भोजन है, और पृथ्वी ही जिनके लिये पलंग और नरम शैय्या है। जो अपने समस्त सगे-संबंधियों को
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