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________________ ६० आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग है, संसार के अन्य सभी धर्म भो अहिंसा पर बहुत जोर देते हैं । ध्यान में रखने की बात है कि प्रत्येक धर्म आत्मशांति और विश्वशांति के पवित्रतम उद्देश्य को लेकर ही स्थापित किया गया है और उच्चतम उद्देश्य अहिंमा या दया के अभाव में पूरा नहीं हो सकता । मनुष्य के मन में दया की जो स्वर्गीय भावना पायी जाती है, वह अहिंसा की ही अमूल्य देन है। अगर संसार के प्राणियों के हृदय में से यह भावना विलीन हो जाये तो संसार की स्थिति कैसी हो जाय, इसकी कल्पना करना भी भयावह लगता है। संभवतः नरक जिसे कहा जाता है वही इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष दिखाई देने लग जाय। इसीलिए हमारे शास्त्र और संत महापुरुष बार-बार दया का पालन करने पर जोर देते हैं। एक फारसी कवि ने भी यही कहा है : . मबाश वरप आजार हरचि खाही कुन । कि दर तरीकते या गैर अजी गुनाहे नेस्त ॥ अर्थात्-हे मनुष्य ! तू और जो चाहे कर, किन्तु किसी को दुःख न दे। क्योंकि हमारे धर्म में इसके अलावा दूसरा कोई पाप नहीं है। सफलता का दूसरा सूत्र है-दान देना। जिस व्यक्ति के हृदय में दया की भावना होगी, उसकी प्रवृत्ति दान देने की ओर अवश्य बढ़ेगी। क्योंकि दया अभावग्रस्त प्राणी पर आती है और उसके अभाव को पूरा करने की इच्छा होने पर दान दिया जाता है 'दीयते इति दानं ।' जो दिया जाय वह दान है। दान का बड़ा भारी महत्त्व होता है, इसे धर्ममय जीवन का मुख्य अंग अथवा धर्म का प्रमुख द्वार कहा जाता है । कहा भी है : नास्ति दानात् परं मित्रमिह लोके परत्र च । इस लोक और परलोक में सर्वत्र ही दान के समान दूसरा मित्र नहीं है । ऐसा क्यों कहा गया है ? इसलिये कि इस लोक में दान देने से जीव को परलोक में भी अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। धन-वैभव तथा अन्य समस्त भौतिक पदार्थ तो प्राणी को काल का ग्रास होते ही छोड़ देने पड़ते हैं, किन्तु दान देकर जो पुण्य कमाया जाता है वह उसके साथ परलोक में भी जाता है । उसका किसी प्रकार भी नष्ट होना संभव नहीं होता। एक कवि का कथन भी यही है: करले जो करना है अभी कल का भरोसा कुछ नहीं, सच्चा खजाना पुण्य का, काम तेरे आएगा। पिछली कमाई खा चला, आगे को भी करले जमा, न यौवन का मानकर संग नहीं कुछ जायेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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