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________________ मौन की महिमा ५६ अनादर एवं अपयश की प्राप्ति होती है, अनेक बार गालियाँ और मार भी खानी पड़ती है। इतना ही नहीं, अपने कठोर वचनों के कारण उस मूढ़ को कारागृह की हवा भी खानी पड़ जाती है। इसलिये विवेकी पुरुष अपने वचनों को रत्नवत मानकर बड़ी समझ-बूझ सहित उन्हें उपयोग में लाते हैं अन्यथा मौन रहते हैं। एक नीतिवान सर्राफ के समान वे अपने वचनों का मोल करते हैं। वे न तो दूसरों का ही नुकसान करना चाहते हैं और न अपना । वे बराबर तौल करते हैं, बराबर देते हैं और बराबर ही लेते हैं। इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष अपने शब्दों को भी तौलकर मुख से निकालते हैं ताकि उनसे दूसरों को हानि न पहुंचे और उनके भी कर्मों का बन्धन न हो। सफलता के सूत्र पूज्यपाद श्री तिलोक ऋषि जी महाराज के विषय में आप जानते ही होंगे। जोकि एक उच्च कोटि के संत एवं महान् कवि भी थे। इन्होंने केवल दस वर्ष की अल्पावस्था में दीक्षा ग्रहण की तथा उसके पश्चात् छब्बीस वर्ष तक संयम का पालन किया। किन्तु कुल छत्तीस वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अनेक महान् कार्य सम्पन्न किये । उत्तमोत्तम काव्य रचना की, अनेक कलापूर्ण वस्तुओं का निर्माण किया, सत्रह शास्त्र कण्ठस्थ किये और अत्यधिक धर्म-प्रचार किया। अपने जीवन के अन्तिम चार वर्षों में तो उन्होंने इतने अधिक गांवों में विचरण करते हुये धर्म-प्रचार किया, जितना वर्षों तक विचरण करते हुये भी कोई नहीं कर पाता । वे जहाँ-जहां भी जाते, उपदेश तो देते ही थे, उस स्थान और वातावरण को लेकर कविताओं की रचना भी करते थे। इतना सब वे कैसे कर पाए ? तभी, जबकि व्यर्थ के वार्तालाप तथा वादविवाद आदि से बचते रहे । अगर अपनी दिमागी शक्ति को उन्होंने अनावश्यक बातों में व्यय कर दिया होता तो यह सब कदापि संभव नहीं था। वे कहते थे : करोड़ बात की वार्ता, सकल ग्रन्थ को सार । दया, दान दम आत्मा, तिलोक कहे उर धार । अर्थात् – करोड़ बातों की बात और समस्त ग्रन्थों का एकमात्र सार इतना ही है कि दया का पालन करो, दान दो तथा आत्मा पर यानी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखो। अगर व्यक्ति इतना हो समझ ले और उसे अम्ल में लाए तो आत्म-कल्याण करने में समर्थ हो सकता है । आत्म-मुक्ति रूपी सिद्ध की सफलता का पहला सूत्र है दया का पालन करना । हमारा जैन धर्म तो दया अथवा अहिंसा की भित्ति पर टिका हुआ ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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