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________________ मौन को महिमा जब इसी प्रकार दूसरा वर्ष पूरा हुआ तो वह बड़ी उत्सुकता से गंगास्नान करके सन्त के आश्रम की ओर चला । किन्तु सन्त को तो उसकी पूरी परीक्षा लेनी थी अतः उन्होंने उस हरिजन स्त्री को फिर से कचरा - कूड़ा साधक पर डालने के लिये कह दिया । स्त्री ने भी वैसा ही किया तथा अपनी झाडू साधक के पैरों से तनिक छुआ दी । साधक यह देखकर पिछली बार की तरह मारने तो नहीं दौड़ा किन्तु झल्ला गया और कुछ कटु शब्द भंगिन को कह दिये । उसके पश्चात् पुनः नहाकर लौटने पर उसने सन्त से अपनी प्रार्थना दोहरायी । सन्त बोले – “बेटा ! अभी तुममें आत्म-साक्षात्कार करने की योग्यता पूरी नहीं आई है । एक बार और जाकर उसी मन्त्र का जप एक वर्ष तक करो। मुझे आशा है कि इस बार तुम अवश्य सफल हो जाओगे ।” ५७ साधक को गुरु की बात सुनकर आश्चर्य हुआ और कुछ निराशा भी । किन्तु उसने कोई उत्तर नहीं दिया तथा मन में कुछ विचारता हुआ शांति से अपने स्थान पर लौट आया तथा मन्त्र का जप करने में तल्लीन हो गया । पूर्ण मौन रहकर जप करते हुये उसने तीसरा वर्ष भी समाप्त किया और स्नान करके संत के आश्रम की ओर आया । इस बार भी भंगिन वही थी और उनका कार्य भी वैसा ही था । अब की बार तो उसने कचरे से भरी हुई अपनी टोकरी हो साधक पर उडेल दी । किन्तु साधक इस बार पूर्णतया बदल चुका था । उसने तनिक भी क्रोध किये बिना दोनों हाथ जोडकर उस अछूत स्त्री से कहा- "माँ ! तुमने मुझ पर बड़ा उपकार किया है । तुम तीन वर्ष से मेरे अन्तःकरण में छिपे हुये क्रोध रूपी शत्रु का नाश करने के महान् प्रयत्न में लगी रही हो । तुम्हारी इसी कृपा के कारण मैं उसे जीत सका हूँ ।" इस बार जब साधक संत के समीप पहुंचकर उनके चरणों में नत हुआ तो उन्होंने उसे उठाकर हृदय से लगा लिया और बोले - "बेटा ! अब तुम आत्मसाक्षात्कार का उपाय जानने के योग्य हो गये हो । तीन वर्ष के मौन-जाप ने ही तुम्हारे क्रोध का नाश किया तथा तुम्हारी आत्मा को शुद्ध बनाया है । अब तुम मुझसे जो भी ज्ञान लोगे उसे सार्थक कर सकोगे ।" इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि मौन में कितनी शक्ति है । मोन रहकर मन्त्र का जप करने से ही साधक के क्रोध का नाश हुआ, अन्तःकरण विशुद्ध बना और ज्ञान प्राप्ति की क्षमता पैदा हुई । इसलिए ज्ञान प्राप्ति के ग्यारह कारणों में से मौन भी एक कारण माना जाता है । राजस्थानी भाषा के एक दोहे में भी क्रोध के नाश का सहज उपाय कवि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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