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अल्प भोजन और ज्ञानार्जन ४६ है-आवश्यकतानुसार मरीज को कई-कई दिन तक खाने को नहीं देना। परिणाम भी इसका कम चमत्कारिक नहीं होता था। लंघन के फलस्वरूप असाध्य बीमारियां भी नष्ट हो जाया करती थीं तथा जिस प्रकार अग्नि में तपाने पर मैल जल जाने से सोना शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार उपवास की अग्नि में रोग भस्म हो जाता था तथा शरीर कुन्दन के समान दमकने लग जाता था। लंघन के पश्चात् व्यक्ति अपने आपको पूर्ण स्वस्थ और रोग रहित पाता था।
लुकमान की दूसरी बात थी-'गम खाओ' । आज अगर आपको कोई दो शब्द ऊँचे-नीचे बोल दे तो आप उछल पड़ते हैं। चाहे आप उस समय स्थानक में संतों के समक्ष ही क्यों न खड़े हों। बिन संत या गुरु का लिहाज किये ही उस समय ईट का जवाब पत्थर से देने को तैयार हो जाते हैं । किन्तु परिणाम क्या होता है ? यही कि तू-तू मैं-मैं से लेकर गाली गलौज की नौबत आ जाती है।
पर अगर कहने वाले व्यक्ति की बातों को सुनकर भी आप उनका कोई उत्तर न दें तो? तो बात बढ़ेगी नहीं, और लड़ाई-झगड़े की नौबत ही नहीं आएगी। उलटे कहने वाले की कटु बातें या गालियां उसके पास ही रह जाएँगी । जैसा कि सीधी-साधी भाषा में कहा गया है :
दीधा गाली एक है, पलट्याँ होय अनेक ।
जो गाली देवे नहीं, तो रहे एक की एक ॥ सर्वोत्तम उत्तर मौन
एक महात्मा सदा अपने ज्ञान-ध्यान एव तप-समय आदि की साधना में लगे रहते थे। उन्हें इस बात की तनिक भी परवाह नहीं थी कि दुनिया उनके विषय में क्या कहती है ? लोग स्तुति करें या निन्दा, अच्छा कहें या बुरा, इसका तनिक भी खयाल उनके मन में नहीं था।
एक बार विचरण करते हुए वे किसी गांव में जा पहुंचे। वहाँ के लोग महात्मा जो के साधना एवं धार्मिक क्रियाएँ देखकर बहुत आकर्षित हुए तथा प्रतिदिन उनके उपदेशों को सुनने के लिए आने लगे। __उसी गाँव में दो श्रेष्ठि भी रहते थे और दोनों मित्र थे । एक दिन एक ने दूसरे से कहा -"मित्र ! सुना है कि हमारे गांव में एक बड़े ही पहुंचे हुए महात्मा पधारे हैं, क्यों न आज चलकर उनका सत्संग किया जाय ?" ____ दूसरा श्रीमंत बोला- "मुझे किसी साधू सत पर आस्था नहीं है। ये सब कमा नहीं सकते अतः पेट भरने के लिए ही साधू का बाना पहन लेते हैं । व्यर्थ उनके पास जाकर समय नष्ट करने से क्या लाभ है ?" ___संतों की निन्दा सुनकर प्रथम व्यक्ति बड़ा क्षुब्ध हुआ किन्तु किसी प्रकार अपने मित्र को राह पर लाने के विचार से उसकी कही हुई बातों पर ध्यान
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