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________________ अल्प भोजन और ज्ञानार्जन ४७ द्वारा हमारे लिए साध्य हो जाती है। तपस्या सम्पूर्ण दूरी ऊँचाई को समाप्त करके हमें उस वस्तु की प्राप्ति करा देती है। ____ कहने का अभिप्राय यही है कि तप का अभाव अबाध्य और अप्रतिहत होता है। वह अपने मार्ग में आने वाली प्रबल से प्रबल बाधाओं को भी अल्प काल में ही नष्ट कर देता है तथा देव एवं दानवों को अपने समक्ष झुका लेता है। ऊनोदरी भी बारह प्रकार के तपों में से एक है, जो मन और रस नाइन्द्रिय पर नियन्त्रण करके भावनाओं और विचारों को आसक्ति तथा लालसा से रहित बनाता हुआ आत्मा को शुद्ध करता है। आहार का प्रयोजन हम जानते हैं कि भोजन का प्रयोजन शरीर के निर्वाह के लिए आवश्यक है। संसार के प्रत्येक प्राणी का शरीर नैसर्गिक रूप से ही इस प्रकार का बना हुआ है कि आहार के अभाव में वह अधिक काल तक नहीं टिक सकता । इसलिए शरीर के प्रति रहे हुए ममत्व का परित्याग कर देने पर भी बड़े-बड़े महर्षियों को, मुनियों को तथा योगी और तपस्वियों को भी शरीर यात्रा का निर्वाह करने के लिये आहार लेना जरूरी होता है। किन्तु आज मानव यह भूल गया है कि इस शरीर का प्रयोजन केवल आत्म साधना में सहायक होना ही है । चूकि शरीर के अभाव में कोई भी धर्म-क्रिया, साधना या कर्मबन्धनों को काटने का प्रयत्न नहीं किया जा सकता अतएव इसे टिके रहने मात्र के लिए ही खुराक देनी पड़ती है। शरीर साध्य नहीं है, यह किसी अन्य एक उत्तमोत्तम लक्ष्य की प्राप्ति का साधन मात्र है। खेद की बात है कि आज का व्यक्ति इस बात को नहीं समझता । वह तो इस शरीर को अधिक से अधिक सुख पहुंचना अपना लक्ष्य मानता है और भोजन को उसका सर्वोपरि उत्तम साधन । परिणाम यह हुआ है कि वह उदर में अच्छे से अच्छा पौष्टिक आहार पहुंचाने का प्रयत्न करता है। इस प्रयत्न में वह भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं करता तथा मांस एवं मदिरा आदि निकृष्ट पदार्थों का सेवन भी निःसंकोच करता चला जाता है। जिह्वालोलुपता के वशीभूत होकर वह अधिक से अधिक खाकर अपने शरीर को पुष्ट करना चाहता है तथा ऊनोदरी किस चीज का नाम है, इसे जानने का भी प्रयत्न नहीं करता। __किन्तु इसका परिणाम क्या है ? यही कि, अधिक ४स-ठूसकर खाने से शरीर में स्फूर्ति नहीं रहती, प्रमाद छाया रहता है और उसके कारण आध्यात्म-साधना गूलर का फूल बनी रहती है । मांस-मदिरा आदि का सेवन करने से तथा अधिक खाने से बुद्धि का ह्रास तो होता ही है, चित्त की समस्त वृत्तियाँ भी दूषित हो जाती हैं । ऐसी स्थिति में मनुष्य चाहे कि वह ज्ञानाजन करे, तो क्या यह संभव है ? कदापि नहीं। ज्ञान की साधना ऐसी सरल वस्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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