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________________ २३ पुरुषार्थ से सिद्धि गोबर के छीन जाने का मतलब यह हुआ कि एक दिन मुझे और मेरी वृद्धा पत्नी को उपवास करना पड़ेगा ।" - 'क्यों क्या तुम्हारे कोई पुत्र नहीं है ?" युवक ने सहज भाव से प्रश्न किया । आँसू पोंछते हुए बूढ़े ने उत्तर दिया – “पुत्र तो मेरे है, पर वह बचपन में ही विदेश चला गया था । योग्य बनकर धन कमायेगा तो मेरी दरिद्रता दूर हो जाएगी, यही सोचकर मैंने उसे भेजा था । किन्तु वर्षों हो गए उसने मेरी खोज-खबर ही नहीं ली। किसी के साथ समाचार आए थे कि अब वह खूब धनवान हो गया है और इधर आने वाला है । पर कब आएगा पता नहीं ।" "बाबा ! तुम्हारा और तुम्हारे पुत्र का क्या नाम है ?" युवक ने उत्सुकता से पूछा । वृद्ध ने अपना और पुत्र का नाम बताया । पर उन्हें सुनते ही युवक अपने पिता के चरणो पर गिर पड़ा और मिलन के हर्ष तथा पिता की दरिद्रता के दुःख से आँसू बहाने लगा । नाम सुनते ही वह जान गया था कि यही मेरे पिता हैं । वृद्ध पहले तो उस युवक का व्यवहार देखकर भौंचक्का-सा रह गया पर तुरन्त ही असली बात समझ गया और उसने अपने पुत्र को छाती से लगा लिया । अब वह लखपति बाप था । यह था पहचान से पहले और उसके पीछे का परिणाम । जब तक वृद्ध को ज्ञान नहीं था कि यह युवक मेरा पुत्र है वह लाखों का स्वामी होते हुए भी थोड़े से गोबर के छिन जाने से रो पड़ा और कुछ क्षणों के बाद ही अपने आपको अतुल वैभव का स्वामी मानकर हँसने लगा । यह होता है ज्ञान का करिश्मा । कहा भी है -- "ज्ञानं सर्वार्थसाधकम् ।" - सभी प्रकार के पदार्थों की प्राप्ति में ज्ञान सहायक होता है | ज्ञान प्राप्त करने पर ही व्यक्ति धर्म-क्षेत्र में प्रवेश कर सकता है । जब तक उसे जीव-अजीव, पाप-पुण्य, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष आदि समस्त तत्त्वों की पहचान नहीं होगी, अर्थात् इनका ज्ञान नहीं होगा, तब तक वह धर्म क्षेत्र में अग्रसर नहीं हो सकेगा । अतः आवश्यक है कि मनुष्य सर्व प्रथम अपने हृदय में ज्ञान की ज्योति जलाए और उसके प्रकाश में अपने निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर बढ़े । उद्यम, ज्ञान प्राप्ति का साधन ज्ञान की परिभाषा और उसका महत्त्व जान लेने के पश्चात् हमारे सामने प्रश्न आता है कि ज्ञान किस प्रकार हासिल किया जाय ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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