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जीवन को नियंत्रण में रखो
३.६
रानी के कहने का तात्पर्य यही था कि राज्य के पुरोहित को आपने ही तो समय-समय पर संकल्प करके विपुल दान दिया है और अब वे लोग दीक्षित हो गए तो क्या हुआ ? धन तो आपका दिया हुआ वही है । फिर आप कैसे इसे ग्रहण कर रहे हैं ? इसके अलावा एक बार आपने इसे त्यागा और अब ब्राह्मण ने इसे त्याग दिया तो यह तो दो बार वमन किया जा चुका है | अतः आप जैसे महाराजा को ऐसा हेय पदार्थ कभी भी पुनः स्वीकार नहीं करना चाहिए । ऐसा करने पर आप वान्ताशी कहलाएँगे और संसार में प्रशंसा के योग्य नहीं बनेंगे उलटे तिरस्कार के पात्र बन जाएँगे ।
राजा इक्षुकार रानी की बात पर हँस पड़ते हैं तथा कहते – “रानी ! राज्यकार्य को तुम क्या जानो ? हम राजा हैं, संसार में रहते हैं और फिर पुरोहित । जब घर में रहते थे तब तक धन हमने लिया नहीं । अब तो वे उसे छोड़ ही गए हैं फिर उस अपार धन राशि से राज्यकोष क्यों न भरा
जाय ।
रानी कमलावती के गले से यह बात नहीं उतरी। उसने पुनः अपनी बात को दोहराते हुए राजा की तृष्णा को लक्ष्य करके कहा
सव्वं जग जइ तुहं, सव्वं वावि धणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जत्रं, नेव ताणाय तं तव ॥
- उत्तराध्ययन सूत्र १४-३६ क्या कहा रानी ने ? यहो कि महाराज ! यदि सारा जगत आपका हो जाय, समस्त धनादि पदार्थ भी आपके हो जाय अर्थात् विश्व का सब कुछ आपका हो जाय तो भी वह आपकी तृष्णा को पूरा करने में समर्थ नहीं हो पाएगा । उस पर भी यह सब मृत्यु आदि के कष्टों के समय तनिक भी सहायता नहीं करेगा न ही उससे रक्षा कर सकेगा । सब यों ही और यहीं पड़ा रह जाये।
राजा इषुकार को रानी की ऐसी बातों से बड़ी झुंझलाहट हुई और वे बोले - " जब तुम इतना ज्ञान रखती हो ता स्वयं ही दीक्षा क्यों नहीं ले लेतीं ?"
पति की बात सुनकर कमलावती ने तुरन्त उत्तर दिया- "महाराज ! मैं तो संसार छोड़ने के लिए इमी क्षण तैशर हूँ। मेरी आत्मा तो पिंजरे में पड़े हुए पक्षी के रूमन छटपटा ही रही है, केवल आपकी आज्ञा की ही देर है । किन्तु मैं चाहती हूँ
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इमे य बद्धा फन्दन्ति मम हत्थज्जमागय ।
वयं च सत्ता कामेसु, भविस्सामो जहा इमे ॥
— उत्तराध्ययन सूत्र १४-४५
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