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________________ सुनकर हृदयंगम करो ३१६ पड़ता । पर बंधुओ, यह याद रखो कि समाज और राज्य के नियम तोड़ने पर तो आपको केवल इस जन्म में ही सजा भोगकर छुटकारा मिल जाता है। पर धर्म के नियमों का पालन न करने पर उनके लिये अनेक जन्मों तक सजा भोगनी पड़ती है। सत्य बोलना अहिंसा का पालन करना, चोरी न करना, तथा दान, शील तप व भाव की आराधना न करना धर्म के नियमों का तोड़ना ही कहलाता है जिनके कारण ऐसे पाप कर्म बँध जाते हैं जो जन्मजन्मान्तर तक भी आत्मा को सजा देते रहते हैं तथा उसे इस संसार की चौरासी लाख योनियों में पुनः-पुन जन्म-मरण कराया करते हैं। इसीलिए श्लोक में कहा गया है कि विहित नियमों का पालन न करने पर आत्मा का पतन होता है। पतन का दूसरा कारण सुभाषित में कहा गया है -निदित कार्यों का करना । जिन कार्यों की निन्दा की गई है, तिरस्कार किया गया है उनका सेवन करने से भी आदमी पतित होता है । प्रश्न होता है कि वे तिदित कार्य व आचरण कौन-कौन से हैं जिनकी शास्त्रों में निंदा की गई है। उत्तर में कहा जा सकता है - क्रोध, मान, माया, लोभ तथा ईर्ष्या-द्वष आदि निंदनीय विकार हैं । जिनका नाश करना आवश्यक है अन्यथा ये आत्मा को कभी भी कर्म-मुक्त नहीं होने देंगे। कहा भी है : कोहं च माणं च तहेव मायं __लोभं चउत्थं अज्झत्तदोसा । ऐयाणि वंता अरहा महेसी, ____ण कुब्बई पाव " कारवेइ ॥ भगवान ने इन चार कषायों का वमन किया है, छोड़ दिया है तभी वे वंदनीय बने । अन्यथा वे भी हमारे समान ही साधारण व्यक्ति थे। किन्तु कष यों का त्याग करने से उनके घनघाती कर्म नष्ट हो गये। अभी मैंने कहा कि भगवान ने चारों कषायों का वमन किया। वमन के स्थान पर त्याग करना भी कहा जा सकता है। पर त्याग करने की बजाय वमन करना यह कहना अधिक उपयुक्त है । क्योंकि छोड़ी हुई या त्याग की हुई वस्तु तो पुनः ग्रहण की भी जा सकती जिस प्रकार नंदीषण मुनि ने मुनि धर्म त्यागकर बाहर वर्ष तक एक वेश्या के यहाँ निवास किया था। शास्त्रों में उल्लेख है कि जिस समय नंदीषेण ने दीक्षा ग्रहण की उस समय आकाशवाणी हुई थी कि अभी तुम्हारे भोगावली बाकी हैं । किन्तु नंदिषण ने नहीं माना और संयम अंगीकार कर लिया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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