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________________ ३१८ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग हैं । 'जो जैसा करेगा वैसा ही भरेगा' यह कहावत यथार्थ है । न उत्तम और शुभ करनी के बिना श्रावक का कल्याण होगा और न ही उपयुक्त करनी के बिना साधु का ही उद्धार हो सकेगा । इसलिये शास्त्र श्रवण करके उसे हृदयंगम करना तथा आचरणों में उतारना अनिवार्य है | अन्यथा सुनना, नहीं सुनना बराबर है । जिस प्रकार आँख होते हुए भी बिना उनका उपयोग किये अन्धं के समान चलना । जो श्रुतज्ञान रूपी आँख को पाकर भी उसका सदुपयोग नहीं करते उनकी आत्मा उन्नत होने के बजाय पतन की ओर ही अग्रसर होती है । एक सुभाषित में पतन के तीन कारण बताए गए हैं कहा है सेवनात् । विहितस्याननुष्ठानान्निन्तिस्य च अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणाँ, नरः पतनमृच्छति ॥ I पतन के तीन कारणों में से पहला कारण है विहित यानी जो कहा गया है । संसार के प्रत्येक क्षेत्र में अपने-अपने नियम होते हैं । आपके समाज में कुछ सामाजिक नियम होते हैं, जिनका पालन न करने पर आप समाज से बहिष्कृत किये जा सकते हैं। राजनीति के भी अनेकानेक नियम होते हैं जिनका प्रत्येक व्यक्ति को पालन करना पड़ता है । अगर राज्य के नियमों के विरुद्ध कोई कार्य करता है तो वह अपराध माना जाता है तथा राज्य उसे सजा दिया करता है । आपके बीच में एस० डी० एम० साहब बैठे हैं इन्होंने सरकार को अपनी अमूल्य सेवाएँ दी हैं । अब तो उन कार्यों से रिटायर हो गए हैं। लेकिन अपने कार्य-काल में अगर आप राजनीति के अनुसार नहीं चलते, उनका यथाविधि पालन नहीं करते तो इस ऊँचे पद पर कैसे पहुँचते ? कहने का अभिप्राय यही है कि जो व्यक्ति राज्य के नियमों का पालन नहीं करता उसकी आत्मा पतन की ओर बढ़ती है तथा वह नाना प्रकार के गैर-कानूनी कार्य करके कैद खाने में सड़ता है । समाजनीति और राजनीति के अनुसार ही धर्मनीति के भी अनेक नियम हैं जिनका श्रावकों और साधुओं को पालन करना चाहिए। पर आमतौर पर हम देखते हैं कि ऐसा होता नहीं है । धर्मनीति का अथवा धर्म के नियमों का पालन करने में व्यक्ति अपेक्षा और प्रमाद करता है । इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि समाज के और राज्य के नियमों का पालन न करने पर आपको उसकी सजा प्रत्यक्ष से भोगनी पड़ती है और पालन न करने पर प्रत्यक्ष रूप में कोई फल नहीं भोगना धर्म के नियमों के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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